मेजर सोमनाथ शर्मा भारतीय सेना के पहले परमवीर चक्र से सम्मानित सैनिक थे। उनका जन्म 31 जनवरी 1923 को जम्मू और कश्मीर राज्य में हुआ था। उनके पिता मेजर जनरल अमरनाथ शर्मा भी सेना में थे, जिससे मेजर सोमनाथ को सेना के प्रति लगाव विरासत में मिला।
सैन्य सेवा एवं वीरता
मेजर सोमनाथ शर्मा 1942 में भारतीय सेना में शामिल हुए और 4 कुमाऊं रेजिमेंट का हिस्सा बने। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अराकान (बर्मा) में जापानी सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी।
1947 का भारत-पाक युद्ध
1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान समर्थित कबायलियों ने जम्मू-कश्मीर पर हमला कर दिया। 3 नवंबर 1947 को, मेजर सोमनाथ शर्मा को श्रीनगर एयरपोर्ट की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बड़गाम भेजा गया। उनके पास मात्र 50 सैनिक थे, जबकि दुश्मन की संख्या 500 से अधिक थी।
उन्होंने अपने घायल हाथ के बावजूद अपनी टुकड़ी का नेतृत्व किया और अंतिम सांस तक लड़ते रहे। जब तक भारतीय सेना की अतिरिक्त टुकड़ियां नहीं पहुंचीं, उन्होंने दुश्मन को आगे बढ़ने से रोके रखा। इसी दौरान एक मोर्टार विस्फोट में वे वीरगति को प्राप्त हुए।
1942 में ब्रिटिश भारतीय सेना में शामिल होकर मेजर सोमनाथ ने अपने सैन्य करियर की शुरुआत की। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने बर्मा में युद्ध किया, जहाँ उन्होंने अद्भुत साहस का परिचय दिया। स्वतंत्रता के बाद, 1947-48 के भारत-पाक युद्ध में उन्होंने भारतीय सेना के साथ कश्मीर की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
3 नवम्बर 1947 को बडगाम में पाकिस्तानी सेना के साथ युद्ध के दौरान, उनके पास सिर्फ 50 सैनिक थे, जबकि दुश्मन के सैनिक कई गुना ज्यादा थे। लेकिन मेजर सोमनाथ ने बहादुरी से दुश्मन का सामना किया और उनके हमले को रोकने में सफल रहे। इस युद्ध में उन्हें गंभीर चोटें आईं, लेकिन अंत तक उन्होंने मोर्चा संभाले रखा और अपने कर्तव्य को पूरा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
उनकी इस बहादुरी और देशभक्ति के लिए उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च सैन्य सम्मान, परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। मेजर सोमनाथ शर्मा का बलिदान और साहस भारतीय सेना के इतिहास में अमर है और उनकी वीरता आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्त्रोत बनी रहेगी।
मेजर सोमनाथ शर्मा का युद्ध कौशल और बहादुरी बडगाम की लड़ाई में अपने चरम पर देखने को मिली। 3 नवम्बर 1947 को उन्हें एक अत्यंत महत्वपूर्ण मिशन के लिए चुना गया था। उनकी बटालियन के पास सीमित संसाधन थे, लेकिन मेजर सोमनाथ ने हिम्मत नहीं हारी। उनके पास केवल 50 जवान थे, जबकि पाकिस्तानी सेना के लगभग 500 सैनिकों ने उनकी पोस्ट पर हमला कर दिया।
बडगाम में स्थितियां बेहद चुनौतीपूर्ण थीं। दुश्मन हर तरफ से घिरा हुआ था और हथियारों तथा सैनिकों की कमी के बावजूद मेजर सोमनाथ ने अपने जवानों को प्रेरित किया और मोर्चा संभाले रखा। युद्ध के दौरान उनके पास गोला-बारूद की कमी हो गई, लेकिन उन्होंने अंतिम सांस तक लड़ते हुए दुश्मनों के हमले को रोके रखा।
इस घातक युद्ध में मेजर सोमनाथ शर्मा को गंभीर चोटें आईं। युद्ध के अंतिम क्षणों में, एक मोर्टार शेल उनके पास आकर फटा, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन उनके अदम्य साहस और नेतृत्व ने उनके साथियों के मनोबल को मजबूत किया और दुश्मन को भारी नुकसान उठाना पड़ा। उनकी इस वीरता ने न केवल उनके साथियों के जीवन को बचाया बल्कि बडगाम को पाकिस्तानी घुसपैठ से भी बचाया।
मृत्यु से ठीक पहले उन्होंने अपने मुख्यालय को संदेश भेजा था:
“शत्रु हमसे मात्र 50 गज की दूरी पर है। हम संख्या में बहुत कम हैं, लेकिन हम पूरी तरह से मुकाबला कर रहे हैं। मैं अत्यंत गंभीर स्थिति में हूं और आखिरी व्यक्ति और आखिरी गोली तक लड़ रहा हूं।”
उनकी शहादत और साहस को याद करते हुए भारतीय सेना ने उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया। यह सम्मान पाने वाले वह पहले भारतीय सैनिक थे। मेजर सोमनाथ शर्मा की वीरता, देशभक्ति और बलिदान आज भी भारतीय सेना के जवानों और भारतीय नागरिकों के लिए एक प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं। उनकी कहानी हमें यह सिखाती है कि कर्तव्य और मातृभूमि के प्रति प्रेम सर्वोपरि है, और इसके लिए किसी भी प्रकार का बलिदान देना महानता की पहचान है।
मेजर सोमनाथ शर्मा का बलिदान न केवल भारतीय सेना के लिए बल्कि पूरे देश के लिए एक अनमोल धरोहर बन गया है। उनकी वीरता ने आने वाली पीढ़ियों को यह प्रेरणा दी कि कर्तव्य और देश की रक्षा के लिए हर कठिनाई का सामना करना चाहिए, चाहे उसकी कीमत कितनी भी बड़ी क्यों न हो।
उनकी बहादुरी की कहानी को भारतीय सेना के हर जवान तक पहुंचाने के लिए कई प्रयास किए गए हैं। भारतीय सेना में नए सैनिकों को प्रशिक्षण के दौरान मेजर सोमनाथ शर्मा की शहादत की कहानी सुनाई जाती है ताकि वे अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्यों को लेकर और अधिक सजग और प्रतिबद्ध हो सकें। उनके बलिदान ने यह संदेश दिया कि अपने देश और उसकी जनता की रक्षा से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता।
मेजर सोमनाथ शर्मा के इस असाधारण साहस को भारत के कई साहित्यकारों और कवियों ने भी अपने लेखन और कविताओं के माध्यम से जीवंत रखा है। उनके जीवन पर आधारित कहानियाँ, कविताएँ और नाटक आज भी भारतीय समाज में देशभक्ति और वीरता की भावना को बढ़ावा देते हैं। कई स्कूलों और संस्थानों ने भी उनकी याद में विशेष कार्यक्रमों का आयोजन किया है।
साथ ही, भारत सरकार और भारतीय सेना द्वारा मेजर सोमनाथ शर्मा को सम्मानित करने के लिए कई स्मारक स्थापित किए गए हैं। उनकी याद में भारतीय सेना के कई रेजिमेंटल सेंटर और सैन्य अकादमियों में उनके नाम पर पुरस्कार और वीरता मेडल भी प्रदान किए जाते हैं। इनके माध्यम से उनके बलिदान को हमेशा याद किया जाता है, ताकि आने वाली पीढ़ियों को उनसे प्रेरणा मिल सके।
मेजर सोमनाथ शर्मा का जीवन और बलिदान इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि कर्तव्य के प्रति ईमानदारी और मातृभूमि के प्रति निस्वार्थ प्रेम में अदम्य साहस होता है। उनका अमर बलिदान हमें हमेशा यह सिखाता रहेगा कि वीरता का सबसे ऊँचा आदर्श अपने देश की रक्षा के लिए किसी भी सीमा तक जाने की हिम्मत रखता है। उनका नाम भारतीय इतिहास के स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है और उनका बलिदान सदा भारतीय सेना और देशवासियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा।
परम वीर चक्र सम्मान
मेजर सोमनाथ शर्मा को उनकी अद्वितीय वीरता और सर्वोच्च बलिदान के लिए मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया। वे इस पुरस्कार को पाने वाले भारत के पहले सैनिक बने।
निष्कर्ष
मेजर सोमनाथ शर्मा भारतीय सेना के अद्वितीय साहस, कर्तव्यनिष्ठा और देशभक्ति के प्रतीक हैं। उनकी वीरता आने वाली पीढ़ियों को सदैव प्रेरित करती रहेगी।