Monday, December 23, 2024
HomeHISTORYझारखण्ड की संस्कृति लोक वाध यंत्र (Jharkhand’s musical instruments)...

झारखण्ड की संस्कृति लोक वाध यंत्र (Jharkhand’s musical instruments) Part -2

सिंघा वाद्य यंत्र 
 
इस वाद्य  यंत्र के निर्माण में बैल या भैंस के सिंग का प्रयोग किया जाता है। इस वाद्य  यंत्र का एक हिस्सा नुकीला होता है तथा इसे सिरे से फूंक मारी जाती है। दूसरा सिरा चौड़ा होता है जो आगे की ओर मुड़ा हुआ रहता है। सिंगा वाद्य  यंत्र मुख्य रूप से छऊ नृत्य में प्रयुक्त होता है। शिकार करते समय पशुओं को खदेड़ने के लिए भी इस वाद्य  यंत्र का प्रयोग किया जाता है साथ ही साथ पशुओं को चराते समय चरवाहे भी उन पर नियंत्रण रखने के लिए इस वाद्य यंत्र का प्रयोग करते हैं।

केन्द्री वाद्य यंत्र 

अगर हम इसे आधुनिक वायलिन का झारखंडी स्वरूप कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस वाद्य यंत्र का प्रयोग संथाल जनजाति द्वारा प्रमुखता से किया जाता है। इस वाद्य यंत्र के तुंबे को बनाने में मुख्य रूप से नारियल के खोल या कछुआ के मजबूत खोल तथा गोही का चमड़ा प्रयुक्त होता है। इस वाद्य  यंत्र के तूंबे से  एक दंड जुड़ा हुआ रहता है जिसका निर्माण लकड़ी या बांस  से किया जाता है। इस वाध  यंत्र में मुख्य रूप से ध्वनि इसी दंड के ऊपर बंधे 3 तारों से उत्पन्न होती है। इस वाद्य  यंत्र को आकर्षक रूप देने के लिए घोड़े के पूछ के बाल इसमें लगा दिए जाते हैं। इस वाद्य  यंत्र में आवाज मुख्य रूप से  गज और दंड के तारों के रगड़ने के कारण उत्पन्न होती है।

 

बानाम 

इस वाद्य  यंत्र कि अगर अगर हम बात करें तो हम देखते हैं कि यह वाद्य  यंत्र लंबे मुदगर  की तरह दिखाई देता है। बनाम सारंगी श्रेणी के वाद्य  यंत्र में शामिल है। इस वाद्य  यंत्र की बनावट में नीचे का भाग ऊपर के भाग से अपेक्षाकृत मोटा होता है। जबकि ऊपर का भाग गोलाकार और पतला होता है। इस वाद्य यंत्र को तार या रस्सी  के  स्थान पर घोड़े के पूछ कि बालों से बांधा जाता है। धनुष जो बांस  या लकड़ी से निर्मित होते हैं तथा जिन पर घोड़े के पूछ के बालों की रस्सी बंधी हुई होती है से  इस वाद्य  को बजाया जाता है।

भुआंग वाद्य यंत्र 

झारखंड की जनजातियों द्वारा इस वाद्य यंत्र को मुख्य रूप से दशहरे के अवसर पर बजाया जाता है। वास्तव में यह एक तार श्रेणी का वाद्य यंत्र है। इस वाद्ययंत्र में धनुष और तुंबा होता है इस वाद्य में लगे तार को खींचकर छोड़ देने पर धनुष टंकार जैसी ध्वनि सुनाई देती है। इस वाद्य यंत्र का निर्माण एक बड़े लंबे लौकी  के खोल से किया जाता है तथा जिसके ऊपर लकड़ी का एक कलात्मक फ्रेम लगा होता है जो देखने में डमरु जैसा  प्रतीत  होता है। इस वाद्य यंत्र की विशेषता है कि उसका ऊपरी भाग अंग्रेजी शब्द की तरह दिखाई देता है। दसाई नाच में जनजातियों द्वारा इस वाद्य यंत्र का उपयोग किया जाता है। यह  संथाल जनजाति का प्रिय वाद्य  यंत्र है

चोड़चोडी वाद्य यंत्र 

इस यंत्र को बनाने में लकड़ी का प्रयोग किया जाता है विशेषकर कटहल की लकड़ी का। यह वाद्य यंत्र ढोलक जाति में शामिल वाद्य यंत्र है जो देखने में ड्रम जैसा दिखता है। इसे बनाने के लिए लकड़ी के डेढ़ फीट लंबे खोल को दोनों तरफ से चमड़े से मढ़ दिया जाता हैऔर  इसको दबाने के लिए लोहे के एक एक चपटे ड़छरंग दोनों मुहों पर कस दिया जाता है। चमड़े के साथ फीता बांधने के लिए इस ड़छरंग पर छिद्र बना रहता है। इस वाद्य यंत्र का आगे वाले भाग पिछले भाग से अपेक्षाकृत बड़ा होता है। उसे  बांस से निर्मित पतले एवं चपटे डंडे  की सहायता से दोनों हाथों की सहायता से पीटकर आवाज निकाली जाती है।

 
नगाड़ा वाद्य  यंत्र
इस वाद्य  यंत्र की एक प्रमुख विशेषता यह है कि झारखंड के विभिन्न जनजातियों द्वारा अलग-अलग आकार के नगाड़े बनाए जाते हैं। यह वाद्य यंत्र ढाक का गोंण  वाद्य यंत्र है। अगर हम इसके बनावट की बात करें तो यह ऊंचाई में 4 से 5 फीट का तथा चौड़ाई में 1 से 6 फीट तक का प्रचलन में देखने में आता है। खड़िया ,मुंडा तथा उरांव जनजाति द्वारा जहां बड़े नगाड़ों का प्रयोग देखने में आता है वही बिरहोर ,हो ,संथाल जनजाति छोटे नगाड़े बजाते हैं। नगाड़ा की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसके निर्माण में समाज के तीन वर्ग यथा मोची ,घासी और लोहार का योगदान होता है। मुख्यतः नगाड़ों के निर्माण में भैंस के चमड़े का प्रयोग किया जाता है। अगर हम बनावट की बात करें तो यह नीचे से गोलाकार होता है तथा लकडी या लोहे से निर्मित होता है।

 

 

शंख वाद्य यंत्र 

झारखंड की जनजातियों
द्वारा मांगलिक अवसरों पर यथा विवाह ,पूजा के समय इसका प्रयोग किया जाता है। यह एक समुद्री जीव का सफेद खोल है। प्राचीन समय में शंख का प्रयोग संदेश भेजने या सावधान करने के संकेत के रूप में भी किया जाता था।  
राहड़ वाद्य यंत्र 
राहड़ एक संथाली शब्द है तथा  इस वाद्य यंत्र को सिर्फ संथाली जनजाति के कलाकार ही बजाते हैं। राहड़ वाद्य यंत्र मे मयूर पंखों का विशेष स्थान होता है। राहड़  वाद्य यंत्र को मुख्य रूप से शादी विवाह के अवसर पर ही बजाया जाता है।

 

 
डींगा वाद्य यंत्र 
 

 

 
झारखंड के जनजातीय नृत्य एवं संगीत में डींगा का बहुत अधिक महत्व है। इसे टमाक भी कहा जाता है। इसका निर्माण लकडी या लोहे से किया जाता है तथा चारों ओर से चमड़ा या डोरी से पूरी तरह से कसकर बांधा हुआ रहता है। जिससे बजाने पर आकर्षक ध्वनि निकलती है। सच तो यह है कि आदिवासी नृत्य एवं संगीत में ताल को व्यक्त करने हेतु डींगा का प्रयोग किया जाता है।

 

मांदर 
 
झारखंड के वाद्य  यंत्रों में यह अत्यंत ही लोकप्रिय है तथा झारखंड के निवासियों द्वारा इसका प्रयोग सदियों से किया जा रहा है। अगर हम मांदर के बनावट की बात करें तो मांदर के अंतर्गत दो मुंह होते हैं। एक दाहिना मुंह जो छोटा होता है दूसरा बायामुंह  जो अपेक्षाकृत अधिक चौड़ा होता है। इन दोनों ही मुंह को बकरे की खाल से ढक दिया जाता है तथा चमड़े की बेनी से मुंह की खालों को कस कर बांध दिया जाता है। मांदर के ढांचे की बात करें तो इसे लाल मिट्टी से बनाया जाता है तथा जो अंदर से खोखला होता है। मांदर एक पार्शवमुखी वाद्य  यंत्र कि श्रेणी में आता है। मांदर के छोटे वाले मुंह पर इसे बनाते समय एक लेप लगाया जाता है जिसे किरण कहा जाता है। इसी लेप  के कारण मांदर से एक गूंजती हुई आवाज निकलती है मांदर की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इस वाद्य  यंत्र का प्रयोग झारखंड की सभी जनजातियों के द्वारा किया जाता है।

 

 

 

 

 

 

झारखंड की जनजातियों का एक वाद्य यंत्र मुरली है जो बांसुरी की तरह ही होती है। लेकिन कलाकार इसे बजाते समय अपने हाथ को सीधा रखकर इसे बजाते हैं। साथ ही साथ बांसुरी की तुलना में मुरली की आवाज अधिक सुरीली एवं मधुर होने के कारण ज्यादा कर्णप्रिय होती है।
तूतूरु वाद्य यंत्र 

 

इस वाद्य यंत्र का निर्माण लोहे की पतली चादर से किया जाता है। इस वाद्य यंत्र का एक छोर पतला होता है तो दूसरा मोटा। इसके बीच में खोलनुमा छिद्र होता है। इस वाद्य यंत्र का उपयोग मांगलिक अवसरों जैसे शादी विवाह के समय अपने मित्रों ,शुभचिंतकों तथा रिश्तेदारों को सूचना देने एवं निमंत्रण देने के लिए प्रयोग किया जाता है।

 

 
घुंघरू वाद्य यंत्र 
 
 
झारखंड की जनजातियों द्वारा उत्सव के समय नृत्य करते समय इसका  प्रयोग किया जाता है। इस वाद्य यंत्र का मुख्य रूप से संथाल जनजाति माला बनाकर कमर या  पैरों में बांधकर नृत्य करती है। घुंघरू का निर्माण पीतल या कासकूट के द्वारा किया जाता है। घुंगरू बड़े तथा छोटे दोनों आकार में बनाए जाते हैं छोटे आकार के घुंघरू को लिपुर कहा जाता है।

 

झाल करताल वाद्य यंत्र 

 

इसका निर्माण पीतल से किया जाता है तथा यह देखने में तश्तरी की तरह दिखता है। इसके बीच का भाग उभरा हुआ होता है जिसमें एक छोटा सा छिद्र होता  है जिसमें डोरी लगी रहती है। इसी डोरी को पकड़ कर इसे बजाया जाता है। यह जुड़वा होता है जिसे दोनों हाथों में पकड़ कर बजाया जाता है। झाल करताल की प्रमुखता से प्रयोग सोहराई नृत्य के समय किया जाता है। करताल का बड़ा आकार ही वास्तव में झाल होता है। आकार में बड़े होने के कारण झाल  की आवाज करताल की तुलना में ज्यादा तीव्र होती है।

 

 
बांसुरी वाद्य यंत्र
 
 
यह सुशीर वाद्य यंत्र की श्रेणी में सबसे लोकप्रिय वाद्य यंत्र है। झारखंड की जनजातियों का सबसे अधिक प्रिय वाद्य यंत्र की उपाधि बांसुरी वाद्य यंत्र को प्राप्त है। अगर हम इसे जनजातियों के जीवन साथी की उपाधि दे दें तो कोई अतिशयोक्तिनहीं होगी। बाँस से बने बांसुरी का आकार पतला और लंबा होता है इसमें कुल कुल सात छिद्र होते  हैं जिसमें एक छिद्र बड़ा  होता है जिसमें होठों को सटाकर होठोंकी सहायता से हवा भरकर आवाज निकाली जाती है। शेष छः  छिद्र पर दोनों हाथों की तीन  तीन अंगुलियों को रखा जाता है तथा फूखी गई हवा पर नियंत्रण रखा जाता है तथा सुरीली आवाज पैदा की जाती है। बांसुरी बजाने वाला कलाकार अपने हाथ को तिरछा रखता है। बांसुरी बनाने में डांगी नाम के बांस का प्रयोग किया जाता है।

 

 

टोहिला वाद्य यंत्र 

 

यह  तंतुवाद्य की श्रेणी में आता है। इस  वाद्य यंत्र की वादन शैली काफी कठिन मानी जाती है। टोहिला वाद्य यंत्र स्वर वाद्ययंत्र होते हुए भी आम वाद्य यंत्र से काफी अलग है।

 

 
एक तारा वाद्य यंत्र 

 

एकतारा

इस वाद्य  यंत्र की प्रधान विशेषता यह है कि इसमें एक ही तार होता है। एक तारा को गुपिजंत्र  भी कहा जाता है। इस वाद्य का प्रयोग साधु-संतों के द्वारा किया जाता है तथा उनके द्वारा भजन ,भक्ति गीत गाते हुए इसे बजाया जाता है। इस वाद्य यंत्र में दोनों तरफ बाँस की तीन फुट लंबी खप्प्चिआ जुड़ी रहती है। इस वाद्य यंत्र के नीचे का हिस्सा लकड़ी या लौकी का बना होता है। एक लकड़ी की खूंटी बांस के ऊपरी भाग में लगी रहती है एक तार नीचे से ऊपर तक बंधा हुआ रहता है। खूंटी का प्रयोग तार को कसने में किया जाता है। इस वाद्य को बजाने वाला व्यक्ति अपनी तर्जनी अंगुली में तांबे या पीतल का त्रिकोण पहनकर तारों पर चोट कर मधुर ध्वनि निकालता है। आवाज में उतार-चढ़ाव लाने के लिए कलाकार अपने बाएं हाथ से खप्प्चिओ को दबाता है। एकतारा वाद्य यंत्र से निकलने वाला स्वर  आधार स्वर  होता है।

 

सानाई वाद्य यंत्र 

 

झारखंड की जनजाति का यह लोकप्रिय वाद्य यंत्र है जिसे हम शहनाई नाम से भी जानते हैं। सानाई को मंगलवाद्य भी कहा जाता है। मांगलिक अवसरों पर तथा विवाह एवं पूजा के अवसर पर इसे बजाया जाता है। इस बाध यंत्र का प्रयोग  मुख्य रूप से छऊ ,पईका तथा महुआ नृत्य के समय किया जाता है। सानाई लगभग दस इंच की होती है। जिसमें लकड़ी की नली होती है जिसमें छिद्र होते हैं। जिसमें एक छोर पर ताड़ के पत्ते की  पेप्ती होती है और दूसरे छोर पर कांसे की धातु का गोलाकार मुंह होता है। सनाई बजाने वाले कलाकार पेटी में फूंक मारता है जिससे कांसे के मुंह की वजह से तेज और तीखी ध्वनि उत्पन्न होती है। यह सुशील वाद्य की श्रेणी में आता है।

 

मदनभेरी वाद्य यंत्र 

 

यह एक पूरक ,गौण या सहायक वाद्य यंत्र है तथा इसे बांसुरी ,ढोल ,शहनाई के साथ संयुक्त रूप से बजाया जाता है। नृत्य एवं विवाह जैसे मांगलिक अवसरों पर इसे बजाया जाता है। इस वाद्य यंत्र की बनावट की बात करें तो इसमें लकड़ी की एक सीधी नली होती है जिसके आगे पीतल का मुंह रहता है। मदनभेरी वाद्य यंत्र लगभग 4 फीट लंबा होता है तथा इसमें कोई छेद नहीं होता है। जिससे इसमें फूंक मारने से एक जैसा ही आवाज उत्पन्न होता है।

ढोल वाद्य यंत्र 

 

इस वाद्य यंत्र का निर्माण कटहल ,आम या गम्हार की लकड़ी से किया जाता है। इसके बनावट की बात करें तो यह 2 फीट लंबा तथा अंदर से खोख्ला होता है। जिसके दोनों छोर गोलाकार होते हैं दोनों छोर की तुलना में मध्य भाग उभरा होता है। इस वाद्य यंत्र के मुंह को बकरी की खाल से ढका जाता है जिसे कसने के लिए गाय की खाल से बनी   बद्धी का प्रयोग किया जाता है। इस बद्धी में लोहे के कड़े पिरोए जाते हैं जिन्हें कलाकार सरका कर स्वर में परिवर्तन लाता है। इस वाद्य यंत्र को कलाकार लकड़ी से या हाथ से बजाता है। यह वाद्य  यंत्र पूजा वाद्य यंत्र की श्रेणी में आता है। यह वाद्य यंत्र मुख्य रूप से शादी विवाह ,पूजा ,छऊ , घोड़ा नाच में प्रयुक्त होता ह।

 

धमसा वाद्य यंत्र 

 

यह एक पूरक ,गौण या सहायक वाद्य यंत्र है। यह एक विशालकाय वाद्य यंत्र है जिसकी आकृति कढ़ाई जैसी होती है। इसकी बनावट को देखें तो यह लोहे की चादर से निर्मित होता है। कलाकार इसे लकड़ियों द्वारा बजाते हैं इस वाद्य यंत्र की आवाज काफी गंभीर और वजनदार होती है। नृत्य के समय युद्ध और सैनिक आक्रमण जैसे  विषयों में इसे बजाया जाता है। धमसा की थाप पर भैंस के साथ बैल को भी नचाने  की परंपरा है।

 

ढाक वाद्य यंत्र 

 

इसका निर्माण गम्हार लकड़ी से किया जाता है। लकड़ी के ढांचे के मुंह को बकरे की खाल से ढककर कस  दिया जाता है। कलाकार इस वाद्य यंत्र को बजाने के लिए इसे कंधे से लटका कर दो पतली लकड़ियों की सहायता से चोट कर बजाते हैं।

 

इस प्रकार हम देखते हैं कि झारखंड की संस्कृति में उसके संगीत में अनेकानेक वाद्य यंत्र उपलब्ध है जो अपने मधुर आवाज से सुनने वाले को आनंदित कर देते हैं।

 

झारखण्ड के सम्पूर्ण वाद्य यंत्र पार्ट -1

BIOGRAPHY
———————————————————————————–
#Irrfan khan biography #इरफान खान की जीवनी। (learnindia24hours.com)
—————————————————————————————————————————
#Biography of Kapil Dev #Kapil Dev/ कपिल देव #Story of Kapil Dev #कपिल देव की जीवनी। (learnindia24hours.com)
—————————————————————————————————————————–
#A. R. Rahman/ए॰ आर॰ रहमान #story of A. R. Rahman #biography of A. R. Rahman. (learnindia24hours.com)
—————————————————————————————————————————–
#Biography of Satyendra Nath Bose/ सत्येंद्र नाथ बोस की जीवनी। (learnindia24hours.com)
———————————————————————————–
For Detail chapter you can click below link  :-

 

RELATED ARTICLES

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments