किसान आंदोलन के इतिहास में अपनी मांगो को लेकर किये गये आंदोलन में यह सर्वाधिक व्यापक और जुझारु विद्रोह था। बंगाल का विद्रोह शोषण के विरूद्ध किसानो की लड़ाई थी यह आनदोलन भारतीय किसानों द्वारा ब्रिटिश के खिलाफ किया गया था जो किसानों को नील उत्पादन के लिए विवश करते थे अपनी आर्थिक माँगो के संदर्भ में किसानो द्वारा किया जाने वाला यह आंदोलन उस काल का विशाल आंदोलन था। अंग्रेज़ी अधिकारी बंगाल तथा बिहार का जमींदारों से भूमि लेकर बिना पैसा दिए ही किसानों को नील की खेती में काम करने के लिए बाध्य करते थे, तथा नील उत्पादन करने के बदले में किसानो को एक मामूली से रकम अग्रिम देकर उनसे करारनामा लिखा लेते थे, जो बाजार के भाव से बहोत ही कम दाम पर हुआ करता था. इस प्रथा को ‘ददनी प्रथा ‘ कहा जाता था, किसान अपनी जमीन पर अन्य फसल की खेती करना चाहते थे परन्तु अंग्रेजी शासकों के कारण वह नहीं कर पते थे।
सर्वप्रथम नील विद्रोह बंगाल में
नील विद्रोह किसानों द्वारा किया गया एक आंदोलन था जो बंगाल के किसानो द्वारा सन 1859 में किया गया था। किन्तु इस विद्रोह शताब्दी पुरानी थी, क्योंकि नील कृषि अधिनियम (इंडिगो प्लांटेशन एक्ट ) पारित हुआ। यह आंदोलन के आरम्भ में नदिया जिले की किसानो ने 1859 के फ़रवरी-मार्च में नील का एक भी बीज बोने से मना कर दिया. यह आंदोलन ‘नदिया ‘, ‘पाबना’, ‘खुलना’, ‘ढाका’, ‘मालदा’, ‘दिनाजपुर’, आदि स्थानों पर फैला था अगर इस आंदोलन की हम बात करे तो यह पुरतः अहिंसक प्रवृति वाला था ,तथा इसमें भारत के हिन्दू और मुस्लमान दोनों ने बराबर का हिस्सा लिया।
इसकी सफलता के सामने अंग्रेज सरकार को झुकना पड़ा और रैय्यतों की स्वतंत्रता को ध्यान में रखते होऊ 1986 ईस्वी के नील विद्रोह का वर्णन ‘दीनबन्धु मित्र’ ने अपनी पुस्तक ‘नील दर्पण ‘ में किया है। इस आंदोलन शुरुआत ‘दिगम्बर’ एवं ‘विष्णु विश्वास’ ने की थी. ‘हिन्दू पेट्रियट ‘ के संपादक ‘हरिश्चंद्र मुखर्जी’ ने निल आंदोलन में काफी कार्य किया। किसानों के शोषण के विरुद्ध सरकारी अधिकारियों के पक्षपात के विरुद्ध विभन्न स्थानों में चल रहे किसानों के संघर्ष को अखबार लगातार खबरें में प्रकाशित किया । इसके अलावा मिशनरियों ने भी नील आंदोलन में समर्थन सक्रीय भूमिका निभाई। इस आंदोलन के प्रति सरकार का व्यवहार भी काफी सहयोगी रहा था। और 1860 ईस्वी तक नील की खेती पूरी तरह ख़त्म हो गई। सन 1860 में इसके लिए आयोग का गठन भी किया गया था।
- स्थल :- नील विद्रोह की पहली घटना बंगाल के नदिया जिला में स्थित गोविन्दपुर गाँव में सितम्बर 1859 में हुई।
नेतृत्व :- स्थानीय नेता दिगम्बर विश्वास और विष्णु विश्वास के नेतृत्व में किसानों ने नील की खेती बंद कर दी।
विद्रोह को पढ़ने का स्रोत :- दीनबंधु मित्र के “नील दर्पण’ के पुस्तक में लिखा है।
इसका प्रभाव किसानों पर इस प्रकार पड़ा
नील विद्रोह (Indigo Revolt) भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण कृषि विद्रोह था जो 1859-1860 के दौरान ब्रिटिश भारत में हुआ था। इस विद्रोह के क्षेत्र में बंगाल, बिहार, ओडिशा, असम और उत्तर प्रदेश शामिल थे।
नील विद्रोह का प्रमुख कारण ब्रिटिश साम्राज्य के नील बागानों (Indigo Plantations) पर सेवा कार्यकर्ताओं के प्रति अत्याचार और शोषण था। ब्रिटिश भूमिधारकों ने किसानों से नील (Indigo) की खेती करने के लिए जबरदस्ती कराई गई और उन्हें न्यायाधीशों की संवेदनशीलता के बावजूद इसे बंद करने के लिए मजबूर किया गया। किसानों को अनुचित तरीके से कमीशन और मजदूरी भुगतान किया गया और उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
यह विद्रोह नील की खेती करने वाले किसानों के मध्यम से प्रभावशाली रहा। किसानों ने इस शोषण के खिलाफ आवाज उठाई और साम्राज्यिक सत्ताधारियों के खिलाफ संगठित हो गए। नील विद्रोह के दौरान किसानों ने धरने, हड़ताल और बगीचों के जलाने जैसे प्रदर्शनों की आयोजन की। इस विद्रोह ने भारतीय आंदोलन की एक महत्वपूर्ण उदाहरण स्थापित किया, जो बाद में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला था।
नील विद्रोह के परिणामस्वरूप, ब्रिटिश सरकार ने इसे दबाया और किसानों को अपनी मांगों के संबंध में अंतिम वार्षिक अधिकार (Permanent Settlement) प्रदान किया। इसके बाद से किसानों को भूमि के लिए औद्योगिक उत्पादों की खेती करने में अधिक स्वतंत्रता मिली। नील विद्रोह ने भारतीय किसानों की आत्मविश्वास और सामरिक योग्यता को प्रदर्शित किया और उन्हें उठने वाले राष्ट्रीय चेतना की प्रेरणा दी।
दूसरा चरण और सबसे महत्वपूर्ण नील विद्रोह जो चंपारण सत्याग्रह/तीनकठिया पद्धत्ति के नाम से भी जाना जाता है।
नील विद्रोह के अगर दूसरे चरण की बात करे तो 20वी शताब्दी में बिहार के बेतिया और मोतिहारी में 1905 – 08 तक उग्र विद्रोह हमें देखने को मिलता है क्योंकि। ब्लूम्सफिल्ड नामक अंग्रेज की हत्या कर दी गई जो कारखाने का प्रबंधक था। अन्ततः 1917 -18 में गाँधी जी के नेतृत्व में चम्पारण सत्याग्रह हमे देखने को मिलता है,जिसके परिणाम स्वरुप ” तिनकठिया ” नामक जबरन नील की खेती कराने की प्रथा समाप्त हुई। तिनकठिया के अंतर्गत किसानों को जो चंपारण सत्याग्रह (बिहार ) के किसानों से अंग्रेज जो बागानो के मालिकों बने हुए थे। उन्होंने किसानों को करार कर रखा था, जिसके अंतर्गत किसानों को अपने कृषिजन्य क्षेत्र 3/20 वे भाग पर नील के खेती करनी होती थी. इस पद्धत्ति को तीन कठिया पद्धत्ति के नाम से जाना जाता है।किसानों को ब्रिटिश सरकार जबरन 15 प्रतिशत भूभाग पर नील की खेती करने के लिए बाध्य करती थी , तथा 20 कट्ठा में से 3 कट्ठा किसानों द्वारा यूरोपियन निलहों को देना होता था जिसे आज हम तिनकठिया प्रथा के रूप में भी जानते है. जिससे भारतीय किसान बहोत परेशान और दयनीय स्थिति में आ चुके थे, और ब्रिटिश सरकार की यह हुकूमत उनके लिए परेशानी का कारण बन गयी। 1917 – चंपारण सत्याग्रह के लिए राजकुमार शुक्ल ने किसानो के मदद अथवा आंदोलन का नेतृत्व करने हेतु गाँधी जी को आमंत्रित किया। गाँधी जी ऐसी विषम परिस्थितयों से अवगत हुए तो उन्होंने बिहार जाने का फैसला किया। जहाँ गाँधी जी के साथ महरुल हक़, राजेंद्र प्रसाद, नरहरि पारीख और जे० बी० कृपलानी के साथ बिहार गए और ब्रिटिश हुजुमत के खिलाफ अपना पहल सत्यागह प्रदर्शन कर दिया। जिसके बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा गाँधी जी के खिलाफ फरमान जारी किया गया की उन्हें वहाँ से निकला जाए परन्तु उनके सहयोगी वहाँ फिर भी डटे रहे, अंततः ब्रिटिश हुकूमत ने अपना आदेश वापिस लिया और गांधीजी द्वारा निर्मित समिति से बात करने के लिए सहमत हो गयी। जिसके परिणाम स्वरुप बिहार (चम्पारण ) के किसानों की दयनीय परिस्थितियों से इस प्रकार शासन को अवगत करवाया की वह मजबूरन इस कार्य को रोकने के लिए मजबूर हो गए। इसमें किसानों और गांधीजी की विजय हुई।
भारत में गाँधी जी ने सत्याग्रह का प्रयोग किया चम्पारण सत्याग्रह गांधीजी के कुशल नेतृत्व प्रभावित होकर रविंद्र नाथ टैगोर ने उन्हें ‘महात्मा ‘ उपाधि प्रदान की।