इस वाद्य यंत्र के निर्माण में बैल या भैंस के सिंग का प्रयोग किया जाता है। इस वाद्य यंत्र का एक हिस्सा नुकीला होता है तथा इसे सिरे से फूंक मारी जाती है। दूसरा सिरा चौड़ा होता है जो आगे की ओर मुड़ा हुआ रहता है। सिंगा वाद्य यंत्र मुख्य रूप से छऊ नृत्य में प्रयुक्त होता है। शिकार करते समय पशुओं को खदेड़ने के लिए भी इस वाद्य यंत्र का प्रयोग किया जाता है साथ ही साथ पशुओं को चराते समय चरवाहे भी उन पर नियंत्रण रखने के लिए इस वाद्य यंत्र का प्रयोग करते हैं।
केन्द्री वाद्य यंत्र
अगर हम इसे आधुनिक वायलिन का झारखंडी स्वरूप कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस वाद्य यंत्र का प्रयोग संथाल जनजाति द्वारा प्रमुखता से किया जाता है। इस वाद्य यंत्र के तुंबे को बनाने में मुख्य रूप से नारियल के खोल या कछुआ के मजबूत खोल तथा गोही का चमड़ा प्रयुक्त होता है। इस वाद्य यंत्र के तूंबे से एक दंड जुड़ा हुआ रहता है जिसका निर्माण लकड़ी या बांस से किया जाता है। इस वाध यंत्र में मुख्य रूप से ध्वनि इसी दंड के ऊपर बंधे 3 तारों से उत्पन्न होती है। इस वाद्य यंत्र को आकर्षक रूप देने के लिए घोड़े के पूछ के बाल इसमें लगा दिए जाते हैं। इस वाद्य यंत्र में आवाज मुख्य रूप से गज और दंड के तारों के रगड़ने के कारण उत्पन्न होती है।
बानाम
इस वाद्य यंत्र कि अगर अगर हम बात करें तो हम देखते हैं कि यह वाद्य यंत्र लंबे मुदगर की तरह दिखाई देता है। बनाम सारंगी श्रेणी के वाद्य यंत्र में शामिल है। इस वाद्य यंत्र की बनावट में नीचे का भाग ऊपर के भाग से अपेक्षाकृत मोटा होता है। जबकि ऊपर का भाग गोलाकार और पतला होता है। इस वाद्य यंत्र को तार या रस्सी के स्थान पर घोड़े के पूछ कि बालों से बांधा जाता है। धनुष जो बांस या लकड़ी से निर्मित होते हैं तथा जिन पर घोड़े के पूछ के बालों की रस्सी बंधी हुई होती है से इस वाद्य को बजाया जाता है।
भुआंग वाद्य यंत्र
झारखंड की जनजातियों द्वारा इस वाद्य यंत्र को मुख्य रूप से दशहरे के अवसर पर बजाया जाता है। वास्तव में यह एक तार श्रेणी का वाद्य यंत्र है। इस वाद्ययंत्र में धनुष और तुंबा होता है इस वाद्य में लगे तार को खींचकर छोड़ देने पर धनुष टंकार जैसी ध्वनि सुनाई देती है। इस वाद्य यंत्र का निर्माण एक बड़े लंबे लौकी के खोल से किया जाता है तथा जिसके ऊपर लकड़ी का एक कलात्मक फ्रेम लगा होता है जो देखने में डमरु जैसा प्रतीत होता है। इस वाद्य यंत्र की विशेषता है कि उसका ऊपरी भाग अंग्रेजी शब्द की तरह दिखाई देता है। दसाई नाच में जनजातियों द्वारा इस वाद्य यंत्र का उपयोग किया जाता है। यह संथाल जनजाति का प्रिय वाद्य यंत्र है
चोड़–चोडी वाद्य यंत्र
इस यंत्र को बनाने में लकड़ी का प्रयोग किया जाता है विशेषकर कटहल की लकड़ी का। यह वाद्य यंत्र ढोलक जाति में शामिल वाद्य यंत्र है जो देखने में ड्रम जैसा दिखता है। इसे बनाने के लिए लकड़ी के डेढ़ फीट लंबे खोल को दोनों तरफ से चमड़े से मढ़ दिया जाता हैऔर इसको दबाने के लिए लोहे के एक एक चपटे ड़छरंग दोनों मुहों पर कस दिया जाता है। चमड़े के साथ फीता बांधने के लिए इस ड़छरंग पर छिद्र बना रहता है। इस वाद्य यंत्र का आगे वाले भाग पिछले भाग से अपेक्षाकृत बड़ा होता है। उसे बांस से निर्मित पतले एवं चपटे डंडे की सहायता से दोनों हाथों की सहायता से पीटकर आवाज निकाली जाती है।
इस वाद्य यंत्र की एक प्रमुख विशेषता यह है कि झारखंड के विभिन्न जनजातियों द्वारा अलग-अलग आकार के नगाड़े बनाए जाते हैं। यह वाद्य यंत्र ढाक का गोंण वाद्य यंत्र है। अगर हम इसके बनावट की बात करें तो यह ऊंचाई में 4 से 5 फीट का तथा चौड़ाई में 1 से 6 फीट तक का प्रचलन में देखने में आता है। खड़िया ,मुंडा तथा उरांव जनजाति द्वारा जहां बड़े नगाड़ों का प्रयोग देखने में आता है वही बिरहोर ,हो ,संथाल जनजाति छोटे नगाड़े बजाते हैं। नगाड़ा की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसके निर्माण में समाज के तीन वर्ग यथा मोची ,घासी और लोहार का योगदान होता है। मुख्यतः नगाड़ों के निर्माण में भैंस के चमड़े का प्रयोग किया जाता है। अगर हम बनावट की बात करें तो यह नीचे से गोलाकार होता है तथा लकडी या लोहे से निर्मित होता है।
झारखंड की जनजातियों द्वारा उत्सव के समय नृत्य करते समय इसका प्रयोग किया जाता है। इस वाद्य यंत्र का मुख्य रूप से संथाल जनजाति माला बनाकर कमर या पैरों में बांधकर नृत्य करती है। घुंघरू का निर्माण पीतल या कासकूट के द्वारा किया जाता है। घुंगरू बड़े तथा छोटे दोनों आकार में बनाए जाते हैं छोटे आकार के घुंघरू को लिपुर कहा जाता है।
BIOGRAPHY
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