सभा
प्रश्न /उत्तर
में इन बिंदुओं
पर चर्चा होगी
सामन्तो अधिकार में वृद्धि :- सेना का संगठन :– नौकरशाही राजस्व :- |
Q.राजपूतकालीन
शासन व्यवस्था पर प्रकाश डालें।
इस युग के राजा निरंकुश ही नहीं बल्कि स्वेच्छाचारी भी होते थे। प्राचीन काल से चली आई सभाओं तथा समितियों का महत्व तो बजट पहले ही उठ चुका था। इस काल तक वे पूर्णतय लुप्त हो गई थी। राजा लोग अपने आपको अर्ध्द – देवता समझते और अपनी पूजा करवाते थे। ब्रह्मण मंत्रियों का उन पर जो कुछ प्रभावथा वह व्यक्तिगत था। वास्तव काल के ब्राह्मण शासनवर्ग का नैतिक समर्थन किया और उसके बदले में ऊँचे – ऊँचे राजकीय पद प्राप्त किये। बहुधा राजाओं दरबार, चाटुकारों, भाटों और चरणों से भरे रहते थे, राज्य की अधिक आय सैनिक तैयारियों में ही व्यय हो हाय करती थी। वास्तव युग का प्रत्येक राज्य सैनिक राज्य तह। सैनिक बल तथा शासक के निजी साहस, शूरत्व और प्रतिष्ठा पर राज्य टिका रहता था। किन्तु इस काल में ऐसे भी अनेक राजा हुए जो युद्धप्रिय होने पर भी शिक्षा, कला, साहित्य, धर्म तथा दर्शन में अनुराग रखते थे। वे विद्वानों का आदर करते, शिक्षा संस्थाओ को दान देते, खेती – बड़ी की उन्नति सिंचाई आदि प्रबन्ध तथा प्रजा के कल्याण के लिए अन्य कार्य करते थे। इस प्रकार के शासकों में मालवा के भेज तथा बंगाल के धर्मपाल के नाम अधिक उल्लेखनीय है।
राज्यों शासन:-
व्यवस्था प्राचीन परम्पराओं पर आधारित थी। राजतंत्र परम्परा में का सर्वाधिक महत्व था। वह अपनी शक्ति के लिए सामन्तो पर निर्भर रहता था। राजा को देवतुल्य मन जाता था और वह विशेषाधिकारों से युक्त था। उसके अधिकार पर कोई विशेष नियंत्रण नहीं होने के कारण वह निरकुंश था। प्रचीन परम्पराओं और धर्मशास्त्रके नियमों की भी वह समय – समय पर अवहेलना करता था। मंत्री भी राजा के दास होते थे, जो सदा उसकी आज्ञा पालन करना अपना कर्तव्य समझते थे। जो मंत्री राजा को परामर्श देने के लिए थे, परन्तु उनके अधिकार बहुत सीमित थे। केंद्रीय शासन शिथिलता आ गयी थी।
सामन्तो अधिकार में वृद्धि :-
प्रान्तीय शासन पर सामन्तो का अधिकार था, जो प्रायः स्वतंत्र रूप से शासन करते थे। केंद्रीय शासन का उन पर विशेष प्रभाव नहीं रहता था। सामंतो को आंतरिक विषयों एवं विशेषाधिकार प्राप्त था। ग्राम – पंचायतों का महत्व काम ह गया तह, क्योंकि उन पर अब सामन्तो का अधिकार बढ़ गया था जागीर – प्रथा के प्रचलन से सामन्तो के अधिकार में कफ वृद्धि हो गयी थी। अधिकारियो के बिच का अंतर बहोत अस्पष्ट होता था। गणत्रंत का लोप तो बहोत पहले ही हो चूका था। राजतंत्र का सर्वथा वंशनुगत था। कभी– कभी पिता के निर्णय से भ्रातृ कलह उतपन्न हो जाता था। भाइयों में मुकुट के लिए आपसी प्रतिद्वेंदिता चलती थी और इससे भी सामन्त लोग लाभ उठाया करते थे। राज्य में इसके चलते अक्सर षड्यंत्र हुआ करते थे और इसके फलस्वरूप अव्यवस्था फलती थे। मंत्रिपरिषद का महत्वा अब नहीं रह गया था। मंत्री का पद भी वंशनुगत हो गया था।अपने पदों को बनाये रखने के लिए वे लोग राजा की हाँ में हाँ मिलाया करते थे कल्हण ने ऐसे कठपुतले मंत्रियो का उल्लेख किया है। सामंतो चर्चा करते हुए अलसुलेमन लिखता है, “भारत में जब कोई राजा किसी पड़ोसी को जितत्ता है, तो वह वह उसे पराजित राजवंश के ही किसी व्यक्ति के अधीन कर देता है, जो उस विजेता के नाम पर शासन करता है। यदि अन्यथा किया जाय, तो जनता को सह्णा नहीं होगा।” विनीत प्रदेशो को अपने राज्य में नहीं मिलाने की यह सत्ता की कमजोरी का एक कारण थी, क्योकि असंतुष्ट सामन्तगण बराबर केंद्र विद्रोह के मोके की ताक में रहते थे। सामन्त अपने प्रभु की व्यक्तिगत सेवा करते थे और युद्ध में प्रभुओं की और से अम्मिलित होते थे और सेना देते थे। राहपुत युग में सामन्तो की सेना पर राजा के निर्भर रहने की प्रवृति बढ़ गयी थी इस युग में सामंतवादी व्यवस्था का पूर्णरूपेण विकास हुआ। यह व्यवस्था एक अभिशाप सिद्ध हुई, क्योकि केंद्रीय का कमजोर बनाने में इसका बड़ा योगदान था।
ग्राम शासन :-
ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई होती थी। ग्रामसभा जनता की समस्याओ को सुलझती तथा को सुलझाती तथा ग्राम का शासन सुचारु रूप से चलती थी ग्राम सभा का अध्यक्ष ग्रामीण कहलाता तह। ग्रामसभा छोटी – छोटी समितियों में विभक्त रहती थी। ये अमितियाँ अलग – अलग निश्चित कार्य को सम्पन्न करती थी। बाजार का प्रबंध , कर असूलना, जलाशयों, उधानो तथा चरागाहों की देखभाल करना, व्यक्तियों के पारस्परिक झगड़ों को सुलझाना आदि कार्य समितियों हो सम्पन्न करती थी। हर एक समिति अपने कार्य का लेखा – जोखा ग्रामसभा के समक्ष पेश करती थी, इन ग्रामसभाओं और समितिया के सम्बन्ध में अपना विचार प्रकट करते हुए सर चार्ल्स मेटकाफ ने लिखा है ” ग्राम संस्थाए छोटे – छोटे लोकतंत्र राज्यों की रूप थी, जो अपने आप में पूर्ण थी। उन्हे कुछ भी चाहिए था, सब उनके पास मौजूद रहता था। अपने से बाहर के साथ उनका संबंध बहोत कम था। ऐसा प्रतीत होता ही की जहाँ अन्य कोई नहीं ब्व्हा वहाँ से संस्थाए ही बची रही। एक राजवंश के पश्चात्य दूसरा राजवंश आया , एक क्रांति के पश्चात्य दूसरी क्रांति हुई , पर ग्राम –संस्थाए वही बानी रही। मेरे विचार में ये ग्राम सस्थाएँ ही , जिनमे से प्रतेयक इ पृथक राज्य की तरह है, भारतीय जनता की रक्षा में सबसे अधिक समर्थ रही थी। इन्ही भरी राजनितिक उलटफेरों तथा भीषण क्रांतियों जनता की रक्षा होती रही। भारतीयों को आज जो कुछ भी स्वतंत्रता, क्षमता और प्रसन्नता प्राप्त है वह सब इन्ही ग्राम संथाओं के प्रभाव से प्राप्त है।
सेना का संगठन :–
राजपूतों सैनिक संगठन बड़ा ही दोषपूर्ण था। इनमे पैदल सैनिकों की संख्या अधिक रहती थी और अच्छी नस्ल के घोड़े उसमे सवर्था अभाव था। राजपूत प्रायः भाले, बल्ल्म, तलवार आदि युद्ध करते था। वे कुशल तीरन्दाज भी होते थे। राजपूत प्रायः अपनी हस्तिसेना को सबसे आगे रखते थे जो बिगड़ जाने पर कभी – कभी रौंद देती थी।
राजा की सेना में स्थायी तथा अस्थायी दोनों प्रकार के सैनिक हुआ करते थे, परन्तु सामन्तो की सेना का बाहुल्य रहता जिसकी स्वामिभक्ति सदैव संदिग्ध रहती थी। इसके अतिरिक्त भाड़े के भी सैनिक रखे जाते थे जो बड़े ही अविश्वनीय होते थे।
राजपूतों की सेना का संगठन भी पुराना ही था। नये – नये अस्त्र – शस्तो का अविष्कार बंद हो गया था तथा अभी प्राचीन रण – पद्धति का अभ्यास एवं प्रयोग ही किया जाता था। राजपुतो के रण – सम्बन्धी आदर्श बड़े ही ऊँचे थे। वे कूटनीति तथा धोखेबाजी में विश्वास नहीं करते थे। वे निरस्त्र तथा भागते हुए शत्रु पर कभी प्रहार नहीं करते थे। स्त्रियों तथा बच्चों पर भी वे कभी हथियार नहीं उठाते थे।
नौकरशाही का विकास और न्याय – व्यवस्था :-
इस काल के धर्मग्रन्थ तथा अन्य साहित्यक रचनाओं से ज्ञात होता है की नौकरशाही की स्थापना हो चुकी थी। एक के ऊपर एक पदाधिकारी नियुक्त किये जाने लगे थे। अधिकारी के लिए कायस्थ शब्द का प्रयोग किया जाता था।
न्याय – व्यवस्ता के क्षेत्र युग में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।
राजस्व :-
राज्य की आय का मुख्य साधन भूमि क्र था। इसके अतिरिक्त सामन्तो से वसूल होने कारो तथा व्यापार,उधोग –धंधो पर लगाये गये टैक्सो से राज्य को अच्छी आमदनी हो जाया करती थी। पड़ोसी राज्यों को लूटकर