शीतयुद्ध क्या है
द्वितीय विश्वा युद्ध समाप्ति के साथ ही इतिहास और राजनितिक का नया अध्याय प्रारम्भ हुआ। 60 वर्ष काल में भी संसार में बहुत – सी घटनाएँ घाटी जिन्होंने विश्व राजनितिक प्रभावित इतिहास छोड़ी। 1940 के बाद उपनिवेशवाद की प्रक्रिया आरम्भ हुई और एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के वे देश जो कई वर्षो से यूरोपीय शक्तियो की उपनिवेश रूप में दासता का जीवन व्यतीत क्र रहे थे, स्वतंत्र होन प्रारम्भ हुए। इसके साथ नव– उपनिवेश की प्रक्रिया प्रारम्भ हुयी। नवस्वतंत्र राष्ट्र सामाजिक, आर्थिक विकास विकसित यूरोपियन शक्तियों द्वारा दी जाने वाली वित्तीय और सैनिक सहायता के कारन स्वतंत्र होते हुए भी उनके प्रभाव और दबाव में आने लगे। संसार की राजनीति में दो महाशक्तियाँ संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ उभरकर आई जो मुख्या रूप से क्रमशः पूंजीवादी तथा साम्यवादी व्यवस्था के समर्थक थे और दोनों ने अपने – अपने अलग गुट स्थापित क्र लिए तथा इनके बिच वर्चस्व के लिए हर क्षेत्र में संघर्ष हुआ। इनके पास में संघर्ष को शीतयुद्ध का युग कहा जाता है।
शीतयुद्ध अभिप्रय एक ऐसे युद्ध से है जिससे न
तो हथियारों का प्रयोग होता है और न ही भीषण रक्तपात। इस युद्ध का रणक्षेत्र मनुष्य का मस्तिष्क होता है और इसमें कूटनीतिक दाँव – पेचों का प्रयोग होता है। फलस्वरूप विभिन्न राष्ट्रों के आपसी तनाव की स्थिति बनी रहती है और युद्ध के बादल हमेशा मँडराते रहते है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक राष्ट्र स्वयं को शक्तिशाली तथा दुसरो को कमजोर बनाने के लिए सभी संभव चाले चलता है। इसका उदेश्य शत्रुओ की स्थिति को कमजोर करना और अपनी स्थिति को विभिन्न प्रकार से मजबूर करना है। इस प्रकार कहा जा सकता है की शीतयुद्ध वास्तविक युद्ध न
होते हुए भी युद्ध जैसे वातावरण को उतपन्न करता है। इसमें दोनों पक्ष हथियारों को छोड़कर शेष सभी साधनो – आर्थिक सहायता, सैनिक कुटबन्दी, प्रचार तथा जासूसी आदि का प्रयोग करते है।
शीतयुद्ध द्वितीय विश्वायुद्ध की समाप्ति के बाद 1945 ईस्वी से प्रारम्भ हुआ। जो 1990 ईस्वी तक जारी रहा। 1990 ईस्वी में शीतयुद्ध की समाप्ति हो गयी। यही से समलीन विश्व राजनितिक शुरुआत माना जाता है। शीतयुद्ध समाप्ति ने विश्व की राजनीति में डर, अनिश्चय, आतंक, सशस्त्र युद्ध की आशंका तथा विनाश का वातावरण बनाया। दोनों गुट (अमेरिका गुट तथा सोवियत संघ गुट) अन्य राष्ट्रों को अपनी ओर मिलाने की लिए विकासील तथा अविकसित राष्ट्रों को सैनिक सहायता तथा वित्तीय सहायता का प्रलोभन देते थे। शीतयुद्ध के वातावरण ने संसार में एक और नए दृष्टिकोण तथा विचारधारा के जन्म तथा प्रसार में योगदान दिया जिसे गट – नोर्पेक्षता खा जाता है और गट–निरपेक्ष आंदोलन का आरम्भ 1961 में हुए बेलग्रेड सम्मेलन से माना जाता है
एशिया , अफ्रीका और लातिन अमेरिका के नव – स्वतंत्र राष्ट्रों को आप विकास करना था। उन्हें डॉ था की दोनों गुटों के साथ रहने पर यह संभव नहीं है इसलिए उन्होंने महाशक्ति यो से तटस्थ रहने का निश्चय किया और उन्होंने गट–निरपेक्ष संगठन का निर्माण किया। इस संगठन के निर्माण में यगोस्लाविया के जोसेफ ब्राज टीटो, भट के पं. जवाहरलाल नेहरू और मिस्र के गमाल अबुल नासिर का हाथ था। 1956 ईस्वी में इन तीनों की महत्वपूर्ण बैठक हुयी। इण्डोनेशीय गुट –निरपक्ष आंदोलन के संस्थापक कहलाए।
गुट –निरपेक्ष आंदोलन का आधार यह था की किसी राष्ट्र को दो गुटों में से किसी भी गुट सम्मिलित नहीं होना चाहिए और अपनी स्वतंत्र पहचान बनाये रखते हुए, प्रत्येक समस्या, प्रश्न तथा मुद्दे पर स्वतंत्रतापूर्वक विचार करते हुए उसके अच्छे – बुरे परिणामों को ध्यान में रखते हुए अपने विचार प्रकट करने चाहिए। किसी देश को अंधाधुंध रूप से किसी भी सैनिक गुट में सम्मिलित नहीं होना चाहिए क्योकि इससे उनकी प्रभुसत्ता भी प्रभावित होती है। आंदोलन का विस्तार होता गया। 1961 में इसकी सदस्य संख्या कुल 25 थी। परन्तु आज यह संख्या 116 है जबकि संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों की कुल संख्या 193 है। गुट – निरपेक्ष आंदोलन का विश्व की राजनीती में महत्वपूर्ण स्थान है और इसकी प्रभावकारी भूमिका है। 20वी शताब्दी के अंतिम दशक में भूमंडलीकरण की धारणा का विकास हुआ और आज इसने सरे संसार को प्रभावित किया है।
भारत ने गुट – निरपेक्ष आंदोलन को सफल बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हमारे देश ने गुट – निरपेक्ष आंदोलन की सक्रियता को बनाए रखा हिअ। जिसका अनुकूल प्रभाव विश्व की वर्तमान राजनीति पर पड़ा है।