सुभाषचन्द्र बोस
जन्म 23 जनवरी
1897 कटक उड़ीसा
माँ – प्रभावती
पिता – जानकीनाथ बोस
पत्नी – एमिली शेंकल
बेटी – अनिता बोस
सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा राज्य के कटक नामक स्थान में एक
सम्पन्न, सुसंस्कृत परिवार में हुआ था । उनके पिता
का नाम जानकीनाथ बोस और मां का नाम प्रभावती था। जानकीनाथ बोस
कटक शहर के मशहूर वकील थे । सुभाष कटक के प्रोटेस्टेण्ट स्कूल से प्राइमरी शिक्षा पूर्ण कर 1909 में
उन्होंने रेवेनशा कॉलेजियेट स्कूल में दाखिला लिया। कॉलेज के प्रिन्सिपल बेनीमाधव दास के व्यक्तित्व का सुभाष के मन
पर अच्छा प्रभाव पड़ा। मात्र पन्द्रह वर्ष की आयु में सुभाष ने विवेकानन्द साहित्य
का पूर्ण अध्ययन कर लिया था। 1915 में उन्होंने इण्टरमीडियेट की परीक्षा बीमार होने के बावजूद द्वितीय
श्रेणी में उत्तीर्ण की। इन्होंने कलकत्ता के स्कॉटिश
चर्च कॉलेज से उन्होंने दर्शनशास्त्र में
स्नातक की डिग्री हासिल की थी।
साल 1919
में वे भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए इंग्लैंड
पढ़ने गए। इन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए 1920
में आवेदन किया और इस परीक्षा में चौथा स्थान हासिल
किया। 22 अप्रैल 1921 को भारत सचिव ई०एस० मान्टेग्यू को आईसीएस से त्यागपत्र देने का पत्र लिखा। क्यू कि उनके दिलो-दिमाग
पर तो स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शों ने कब्जा कर रखा था और वो
देश के लिए कुछ करना चाह रहे थे ।
लेकिन भारत मां के इस दुलारे बेटे ने
जब जलियावाला बाग वाला नरसंहार देखा तो इनका मन व्यथित हो गया । विलायत से लौटने रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह के अनुसार भारत वापस आने पर वे
सर्वप्रथम मुम्बई गये और महात्मा गांधी से मिले। मुम्बई में गांधी जी मणिभवन में निवास करते थे। वहाँ 20 जुलाई 1921 को गाँधी जी और सुभाष के बीच पहली मुलाकात हुई। गाँधी
जी ने उन्हें कोलकाता जाकर दासबाबू के साथ काम
करने की सलाह दी। इसके बाद सुभाष कोलकाता आकर दासबाबू से मिले। देश की आजादी का
जुनून उन पर इस कदर चढ़ा कि उन्होंने प्रिंस ऑफ वेल्स की
भारत यात्रा का बहिष्कार कर डाला । इस एवज में उन्हें 10 माह के कारावास की सजा भोगनी पड़ी । अपने क्रान्तिकारी
आन्दोलनों के दौरान वे 1924 में दूसरी बार 2 वर्ष के
लिए मण्डला जेल भेजे गये । जेल से छूटते ही उन्होंने बंगाल के क्रान्तिकारियों से,
विशेषकर देशबन्धु, चितरंजन दास, यतीन्द्रदास से
घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित कर क्रान्तिकारियों के आन्दोलनों को सक्रिय गति दी । 1930 में सुभाष कारावास में ही थे कि चुनाव में उन्हें कोलकाता
का महापौर चुना गया। इसलिए सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी। 1932
में सुभाष को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा
जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबियत फिर से खराब हो गयी। चिकित्सकों की
सलाह पर सुभाष इस बार इलाज के लिये यूरोप जाने को राजी हो गये। सन् 1933 से लेकर 1936 तक सुभाष यूरोप में रहे। यूरोप में
सुभाष ने अपनी सेहत का ख्याल रखते हुए अपना कार्य बदस्तूर जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें भारत के
स्वतन्त्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया। आयरलैंड
के नेता डी वलेरा सुभाष के अच्छे दोस्त बन गये। जिन दिनों सुभाष यूरोप में
थे उन्हीं दिनों जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का
ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाष ने वहाँ जाकर जवाहरलाल नेहरू को सान्त्वना
दी। 1934 में सुभाष को उनके पिता के मृत्यु होने की खबर मिली। खबर सुनते ही वे
हवाई जहाज से कराची होते हुए कोलकाता लौटे वे कोलकाता गये। कोलकाता पहुँचते ही
अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कई दिन जेल में रखकर वापस यूरोप भेज
दिया।
सन् 1934
में जब सुभाष ऑस्ट्रिया में अपना इलाज कराने हेतु ठहरे हुए थे उस समय उन्हें अपनी
पुस्तक लिखने हेतु एक अंग्रेजी जानने वाले टाइपिस्ट की आवश्यकता हुई। उनके एक
मित्र ने एमिली शेंकल नाम की एक ऑस्ट्रियन महिला से उनकी मुलाकात करा
दी। सुभाष एमिली की ओर आकर्षित हुए और उन दोनों में स्वाभाविक प्रेम हो गया। उन
दोनों ने सन् 1942 में बाड गास्टिन नामक स्थान पर हिन्दू
पद्धति से विवाह रचा लिया। वियेना में एमिली ने एक
पुत्री को जन्म दिया। सुभाष ने उसे पहली बार तब देखा जब वह मुश्किल से चार
सप्ताह की थी। उन्होंने उसका नाम अनिता बोस रखा
था। 1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा
में होना तय हुआ। इस अधिवेशन से पहले गान्धी जी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए
सुभाष को चुना। यह कांग्रेस का 52 वाँ अधिवेशन था।
सुभाष ने बंगलौर में मशहूर वैज्ञानिक सर विश्वेश्वरय्या
की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद की स्थापना भी
की। वह दूसरी बार अध्यक्ष पट्टाभि सीतारमैया को हराकर बने मगर 29 अप्रैल 1939 को सुभाष ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा
दे दिया।
3 मई 1939
को सुभाष ने कांग्रेस के अन्दर ही फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की
स्थापना की। कुछ दिन बाद सुभाष को कांग्रेस से ही निकाल दिया गया। बाद में फॉरवर्ड
ब्लॉक अपने आप एक स्वतन्त्र पार्टी बन गयी। बर्लिन में
सुभाष सर्वप्रथम रिबेन ट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओं से मिले। उन्होंने
जर्मनी में भारतीय स्वतन्त्रता संगठन और आज़ाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। इसी
दौरान सुभाष नेताजी के नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार
के एक मन्त्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाष के अच्छे दोस्त बन गये। आखिर 29 मई
1942 के दिन, सुभाष जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर
से मिले।
इसके बाद वह जापान चले गए। जापान के प्रधानमन्त्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के
व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें सहयोग करने का आश्वासन दिया। वर्ष 1943 में वो जर्मनी से सिंगापुर आए। पूर्वी एशिया
पहुंचकर उन्होंने रास बिहारी बोस से ‘स्वतंत्रता आन्दोलन’
का कमान लिया और ‘आजाद हिंद फौज’ का गठन किया और नारा दिया था कि तुम मुझे खून दो
मैं तुम्हें आजादी दूंगा। इसके बाद सुभाष को ‘नेताजी’
कहा जाने लगा। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद
हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित
करने के लिये नेताजी ने ‘दिल्ली चलो’ का नारा
दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंडमान और निकोबार
द्वीप जीत लिये। नेताजी ने इन द्वीपों को ‘शहीद
द्वीप’ और ‘स्वराज द्वीप’ का नया नाम दिया। दोनों फौजों ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में
अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनों फौजों को पीछे हटना पड़ा।
6 जुलाई 1944 को
आजाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गांधी को सम्बोधित करते हुए नेताजी
ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द और आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में
बताया। इस भाषण के दौरान नेताजी ने गांधी जी को ‘राष्ट्रपिता’
कहा ।
18 अगस्त 1945 में एक विमान दुर्घटना में
उनकी मृत्यु ताईवान में हो गयी परंतु उसका दुर्घटना का कोई साक्ष्य नहीं
मिल सका। सुभाष चंद्र की मृत्यु आज भी विवाद का विषय और रहस्य है ।
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