Saturday, July 27, 2024
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झारखण्ड की संस्कृति लोक वाध यंत्र (Jharkhand’s musical instruments)

                                              झारखण्ड  की संस्कृति लोक वाध  यंत्र 
झारखंड के वाद्य यंत्रों को हम झारखंड की संस्कृति के परिचायक कह सकते हैं। हमें झारखंड की संस्कृति की झलक इन वाद्य यंत्रों से दिख जाती है। झारखंड की संस्कृति का जब हम अध्ययन करते हैं तो हम यह देखते हैं कि झारखंड के निवासी गीत, गाने, नृत्य करने तथा संगीत के प्रेमी होते हैं तथा उनके द्वारा इन सभी में अनेकानेक वाद्य यंत्र का प्रयोग किया जाता है। झारखंड में जनजाति के वाद्य यंत्रों के बनावट पर अगर हमें ध्यान देते हैं तो हम यह देखते हैं कि इन्हे मुख्यता रूप से निम्नलिखित 4 श्रेणी में रूप से रखे गए हैं।
1 ) पहला वाद्य यंत्र:- किस वाद्ययंत्र में तार के सहयोग से ध्वनि निकाली जाती है। इस वाद्य यंत्र में लगे तार को बजाने वाला व्यक्ति अपनी अंगुलियों से लकड़ी से छोड़कर गीतों को गाते हुए आकर्षक आवाज उत्पन्न करता है। अगर हम प्रमुख तंतु वाद्य यंत्र की बात करें तो वह है सारंगी, मुआंग , तार तथा केंदरी है ।
2 ) सुसीर वाद्य :-  झारखंड की जनजाति द्वारा इसका प्रयोग प्रमुखता से किया जाता है। इस वाद्य यंत्र  में बजाने वाला व्यक्ति अपने मुँह से तरह-तरह की ध्वनि निकालकर गीत  संगीत से लोगों को आनंदित करता है। इस वाद्य यंत्र के प्रमुख रूप है। बांसुरी जिसे जनजाति द्वारा आर्डवासी कहा जाता है। अन्य रूप से सिंगा , शंख, मदन, भेरी इत्यादि।
1) शंख, 2) सिंघा
3)अवन्द्ध वाद्य :- इन्हे ताल वाद्य भी कहा जाता है इस वाद्य यंत्र में चमड़े को प्रयोग कर के इसको बनाया जाता है तथा इसी चमड़े से आवाज निकाली जाती है  प्रमुख वाद्य  है:-  मंदार,नगाड़ा ,ढोल. ताशा,डमरू,खंजरी, कारहा,धंमशा इत्यादि। इन  वाद्यों को भी दो भागो में विभाजित किया जाता है पहला मुख्या वाद्य। दूसरा गोण  ताल  वाद्य। मुख्या ताल वाद्य की श्रेणी में आने वाले प्रमुख वाद्य है ढाक , मांदर ,ढोल वही गौण  ताल वाद्य श्रेणी में ताशा धमसा,गुंडि ,नागरा ,करहा प्रमुख है।  गौण  ताल वाद्य का प्रयोग लगभग सभी प्रकार के वाद्य यंत्र  में उनके साथ पुरक  वाद्य यन्त्र के रूप में बजने की परम्परा  देखने में आती है।

ढोल
4) धनवाध वाद्य :-  इस वाद्य  यंत्र  के निर्माण में धातु का प्रयोग मुख्य रूप से होता है वह भी कासा  धातु का इन धनवाध  के प्रमुख उधारण  है– झांझ , करताल , मंदिरा , झाल , घंटा, इत्यादि धनवाध यंत्र की विषेशता यह है की इसमें उत्पन्न ध्वनि काफी तीव्र होती है और इसकी गूंज काफी दूर तक जाती है
 अब हम अध्ययन की सरलता हेतु रहा झारखण्ड में प्रचलित विभिन्न  यत्रों  का अध्ययन निम्न प्रकार  करेंगे।
झाल
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संथाल विद्रोह (Santhal Rebellion) -learnindia24hours

संथाल विद्रोह एक ऐतिहासिक घटना थी जो भारत में 1855-1856 के बीच विशेष रूप से झारखंड क्षेत्र में हुई थी। यह विद्रोह संथाल समुदाय के सदस्यों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति की बेहतरी के लिए था, जिसमें उन्हें उनके भूमि-संप्रदायिक अधिकारों की रक्षा करने की आवश्यकता महसूस हो रही थी।

कुछ मुख्य घटनाएँ जो संथाल विद्रोह में घटीं:

 

  1. भूमि कब्जा – इस विद्रोह की मुख्य कारणों में से एक थी ब्रिटिश सरकार की भूमि कब्जा पॉलिसी। उन्होंने संथालों की जड़ी-बूटी और खेती की भूमि पर अत्यधिक कर दी, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति पर प्रभाव पड़ा।

 

  1. अत्याचार और उत्पीड़न – संथाल समुदाय के लोगों को अंग्रेजों द्वारा उत्पीड़ित किया जाता था, उनकी आरामदायक जीवनशैली को दुर्बल करने के लिए कई प्रकार के नियम और कानून बनाए गए थे।

 

  1. विद्रोह और संघर्ष – 1855 में संथाल वीरों ने अपने नेतृत्व में एक बड़ा विद्रोह आरंभ किया। उन्होंने ब्रिटिश स्थानीय अधिकारियों और सैन्य के खिलाफ संघर्ष किया।

 

  1. संघर्ष और पराजय – हालांकि संथाल वीरों ने आराम से आगे बढ़ते हुए कई स्थलों पर अच्छे प्रदर्शन किए, लेकिन ब्रिटिश सरकार की मजबूत ताकतों के सामने उनकी हालात दुर्बल थीं। उन्हें संघर्ष में हार का सामना करना पड़ा और उन्होंने अपने विद्रोह को समाप्त कर दिया।

 

संथाल विद्रोह ने समाज में सामाजिक जागरूकता को बढ़ावा दिया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दिशा में प्रेरित किया। यह विद्रोह भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ लोकल प्रतिरोध की प्रेरणा स्त्रोत बनी।

संथाल विद्रोह जो की झारखण्ड में हुआ था इस विद्रोह में झारखण्ड के लोग शामिल थे  जिसमे प्रमुख तोर पे इस लोगो का नाम आता  है ।

 

सिध्दू  का जन्म 1815 ईस्वी में हुआ था ।

कान्हु  का जन्म  1820 ईस्वी में हुआ था ।

चाँद का जन्म  1820 ईस्वी में हुआ था ।

भैरव का जन्म 1835 ईस्वी में हुआ था ।

 

यह चारो ही भाई थे इनके पिता का नाम चुननी मांझी  था ।

सिध्दू  कान्हू  ने 1855-56  ईस्वी में ब्रिटिश सत्ता के साहूकारों व्यपारियो यह जमींदारियों के खिलाफ संथाल विद्रोह ( हूल आंदोलन) का नेतृत्व किया था ।

संथाल विद्रोह का आरम्भ भगनाडीह से हुआ जिसमे सिध्दू  कान्हू आपने दैवीय शक्ति का हवाला देते हुए सभी मँझियो को साल की टहनी भेजकर संथाल हूल के लिए तैयार रहने को कहते थे ।

 

संथाल विद्रोह में सक्रिय भागीदारी निभाने वाले चाँद एवं भैरव जो के सिध्दू कान्हू के भाई थे उन्होंने व् मुख्या भूमिका निभाई थी ।

 

3० जून 1855  ईस्वी को भगनाडीह की सभा में सिध्दू को राजा  कान्हू को मंत्री  चाँद को प्रशासक तथा भैरव को सेनापति चुना गया । भगनाडीह में लगभग 10,000 संथाल एकत्र हुए थे ।

 

संथाल विद्रोह का नारा  था –  अपना देश और अपना राज और इसमें मुख्य नारा करो या मरो अंग्रेजी हमारी माटी छोड़ो

विद्रोह में  अँग्रेजी सरकार  के खिलाफ विद्रोह छेड़ा गया था जिससे अंग्रेजी सरकार के तरह से 7 जुलाई 1855 को प्रारंभ में इस विद्रोह को दबाने हेतु जनरल लॉयड  के नेतृत्व में फौज की एक टुकड़ी भेजी गई ।

 

सरकारी लोगो के इस बरताओ से लोगो में आक्रोश बड़ा एवं जिसके कारण  विद्रोह और बढ़ने लगा और अलग – अलग जिलों में फैलने लगा ।

हजारीबाग में संथाल आंदोलन का नेतृत्व लुगाई मांझी और अर्जुन मांझी ने संभाल रखी थी  जबकि बीरभूम में इसका नेतृत्व गोरा मांझी कार  रहे थे।

संथाल विद्रोह के दौरान महेश लाल एवं प्रताप नारायण नमक दरोगा की हत्या कर दी गई थी ।

बहाईत के लड़ाई में चाँद भैरव भी शाहिद  हो गए थे जिसके पश्चात सिध्दू – कान्हू को पकड़कर बरहाईत  में फाँसी  दी गई

जिसके पश्चात प्रतेक वर्ष हूल दिवश 30 जून को मनाया जाता है ।

 

संथाल विद्रोह (हूल आंदोलन) के प्रमुख नेता :-  सिध्दू मुर्मू ,  कान्हू मुर्मू  ,चाँद मुर्मू, भैरो मुर्मू, फूलो मुर्मूर,झालो मुर्मू  जो सिध्दू कान्हू की बहन थे , लुगाई मांझी, अर्जुन मांझी,होरा मांझी

 

संथाल विद्रोह को दबाने के लिए कप्तान एलेग्जेंडर ले एवं थॉमसन एवं ले रीड  ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।

इस विद्रोह को संथालपरगना की प्रथम जनक्रांति मन जाता है ।

ज़रूर, जारी रखते हैं।

संथाल विद्रोह एक महत्वपूर्ण घटना थी जो भारतीय इतिहास में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लोकल प्रतिरोध की प्रेरणा स्त्रोत बनी। यह विद्रोह संथाल समुदाय के सदस्यों के आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की प्रतिष्ठा और सुरक्षा के लिए था। उनकी भूमि पर अत्याचार और उत्पीड़न के खिलाफ उन्होंने संघर्ष किया।

 

विद्रोह के परिणामस्वरूप, संथाल वीरों ने कुछ स्थलों पर सफलता हासिल की, लेकिन ब्रिटिश सरकार की मजबूत ताकतों के सामने उनकी हालात दुर्बल थीं और उन्हें संघर्ष में हार का सामना करना पड़ा।

 

संथाल विद्रोह ने समाज में सामाजिक जागरूकता को बढ़ावा दिया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दिशा में प्रेरित किया। यह घटना ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लोकल और राष्ट्रीय प्रतिरोध की आदि की एक प्रेरणास्त्रोत बनी और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पथ को प्रशस्त किया।

काल मार्स  ने भी इस विद्रोह को  भारत का प्रथम जान विद्रोह माना  है इस विद्रोह के दमन के बाद संथाल  क्षेत्र को एक पृथक  नॉन रेगुलेशन जिला बनाया गया जिसे संथालपरगना का नाम दिया गया है। 

बिरसा मुंडा की जीवन की सम्पूर्ण घटना, युद्ध और कार्य, All About Brisa Munda-learnindia24hours

बिरसा  मुंडा जीवन परिचय
इनका जन्म  15 नवम्बर 1874  को उलिहातू गाँव राँची में हुआ  था
इनके पिता का नाम सुगना मुंडा था तथा माता का नाम कदमी  मुंडा था
सुगना मुंडा लकरी मुंडा के पुत्र थे कदमी डाबर मुंडा की पुत्री थी
झारखण्ड के  आंदोलनकारियो में  भगवान्  की हैसियत रखने वाले ब्रिरसा मुंडा  महान क्रन्तिकारी थे जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के विद्रोह सशत्र  हिंसाक क्रांति का आरंभ किया था  अगर हम सरकारी दर्तावेजो का अध्ययन करते है तो हम देखते  इसमें बिरसा मुंडा का जन्म  गांव में दर्शाया गया है  कुछ बिद्वानों  का मानना था की बिरसा का जन्म हस्पतिवार में हुआ था  इसीलिए इनका नाम बिरसा रखा गया क्योकि मुंडारी भाषा में विरहस्पति को बिरसा कहा जाता है बिरसा मुंडा के जन्म  के संदर्भ में डॉक्टर पुरुषोत्तम कुमार का मानना है की बिरसा मुंडा जन्म का 1866 ईस्वी  में खटंगा  में हुआ था बिरसा मुंडा ने इसाई धर्म  को अपनाया  जिसके बाद उनका नाम मशीहा दास रखा गया था उनका नाम बृषा डेबिट रखा गया था बिरसा मुंडा क्रान्तिकारियो में मरांग गोमके नाम से जाने  जाते  थे बिरसा मुंडा 30 वर्ष की आयु में 1896 से 1897 ईस्वी  तक कारावास की सजा पाकर हजारीबाग जेल  में कैद थे
ननिहाल  —   बिरसा मुंडा का बाल्यकाल उनके नाना के घर अयुबहातु में बिताई। जोना नाम की महिला उनकी रिस्ते  मोशी लगती थी उन्हें खटंगा ले आईl   जहा उनका संपर्क ईसाई धर्म  के प्रचारक से हुआ  कुछ समय के बाद है अपने से बड़े जिनका नाम कोमता मुंडा था  उनके साथ वे रहने लगे वे गौड़बेड़ा के आनंद पांडा नाम के ब्राह्मण  के सम्पर्क में आये इसे ही बृषा मुंडा का राजनैतिक गुरु कहा जाता  है क्योंकि इन्ही ने रामायण और  महाभारत  कहानियो से  प्रेरित होकर  वे जंगल जाने लगे एक अच्छे निशानेबाज के रूप  में अपना को अस्थापित किया
प्राथमिक  शिक्षा —   बिरसा  मुंडा  अपने  शुरू की पढ़ाई  सलगा गांव के स्कूल से की थी  कुण्दी  बरटोली में बिरसा मुंडा का परिचय  एक जर्मन  पादरी
से हुआ तथा साथ वह बरजो आ गए जहा से उन्होंने प्राथमिक  शिक्षा प्राप्त की चाईबासा स्थित लूथेन मिसर में उन्होंने उच्च  शिक्षा की परीक्षा 1890 ईस्वी  में उत्तीण की  बाद  में  अपने माता पिता  में पास जो चालकद  में रह रहे थे वह  गए आज चालकद  बिरसा मुंडा के अनुयायियों का तीर्थ अस्थल  बन गया  है
धार्मिक परिवर्तन —  एक वेसनाव साधु के संपर्क  कारण बिरसा मुंडा ने यगोपवीत धारण करते हुए अपने को शाकाहारी   की उपासना करना प्रांरभ  कर दिया एक किदवंती है की पाटपुर में  बिरसा को भगवान् विष्णु के दर्शन हुए   बिरसा का विवाह सागरा नमक गांव में रहने एक लड़की से  हुई  जिसे  उन्होंने जेल से   आने के बाद    चरित्रहीन कहकर  छोड़ दिया था इसके उपरांत  जीवन   में अकेले ही रहे थे
 तुईला का  निर्माण एवं भगवान  प्राप्ति  —   बिरसा मुंडा को बांसुरी गठन काफी पसंद था उनहोंने गथान काफी  पसंद था  उन्होंने लूकी से एक तार वाला वाद्य  यंत्र बनाया था  जिसे तुईल कहह गया 15  नवम्बर को  बिरसा मुंडा के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है 1895 ईस्वी में  बिरसा मुंडा को पैगम्बर प्राप्त हुई और वे  बिरसा मुंडा से   बिरसा भगवान् के रूप में विख्यात हो गए  बिरसामुंडा द्वारा बराये गए धर्म को बिरसाइत  कहकर पुकारा गया  बिरसा मुंडा ने एक  आंदोलन उलगुलान की सफलता के  लिए उलगुलान सेना बनाई थी जिसमे उनका सहयोग दोनका  मुंडा तथ गया मुंडा ने साथ दिया था
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बिरसा मुंडा आंदोलन — बिरसा मुंडा आंदोलन के प्रथम चरण का जब हम अध्ययन करते है तो यह हम देखते है की  बिरसा मुंडा के आंदोलन के प्रथम चरण में नेता के रूप में सीमा मुंडा ने महत्वापूर्ण  भूमिका निभाई थी उलगुलान का शाब्दिक अर्थ होता है महासंग्राम बिरसा मुंडा अपने अनुयायियों पर खीर जाली विस्दा का छिड़काव करते थे बिरसा मुंडा को लोग धरतीआबा  के नाम्नाम से भी पुकारते थे जिदका अर्थ होता है धरती का पुत्र  सच तो यह होता है शर्तो का पुत्र सच तो यह है कि बिरसा मुंडा  के बताये गए शर में मुंडा, धर्म  हिन्दू, इसाई इन  सभी धर्म  के तत्व विद्यमान थे
बिरसा मुंडा क्र मनुष्य  के विकास के नीव में तीन बाटे मुख्य रूप से शामिल थी पहला इसाई धर्म दूसरा वैषणव धर्म तीसरा सरदारी आंदोलन का तातपर्य है सरदारी आंदोलन का तत्प्रय है संदरी आंदोलन में  बिरसा मुंडा प्रांरभ  से ही शामिल होते रहे तथा  उन्हें अपनी नेता के रूप में सरदार मानाने भी लगे थे
प्रसिद्ध इतिहासर ऐ सी राय  ने अपनी पुस्तक थे (The Munda’s and their country ) में एक किद्वंती लेख किया है जिसमे  बताया है की 1885 मई को आसमान से   बिजली गिरी जिसके फलस्वरूप बिरसा मुंडा के  सकल सूरत में आमूलचूल परिवर्तन हो गए और इस घटना के समय उन्हें ईश्वर  का संदेस भी प्राप्त  हुआ
बिरसा मुंडा अनेक धार्मिक आडम्बरो एवं अंधविस्वास के खिलाफ थे  उनका यह मानना थे की सिंग बोंगा ही एकमात्र देवता है जिन्होंने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण किया है उनहोने कहा है की भूत  प्रेत पर विस्वास  नहीं करना चाहिए न ही बलि नहीं देनी  चाहिए  बिरसा मुंडा ने लोगो को मंसाहारी भोजन तथा  हड़िया के त्याग  के लिए प्रेरित किया उन्होंने कहा की मानव सेवा ही परम धर्म है  बिरसा मुंडा के सदा सरल जियां और उच्च विचार रखने तथा परोपकार करने के कारण  जनसाधारण उनके तरफ सहज ही आकर्षित हो गए लोग बड़ी संख्या में उनको स्पर्श करने मात्र  से बीमार लोग ठीक  हो जाते थे सरदार भी ईसाई धर्म को त्याग कर  बिरसा मुंडा के अनुयायी बनाने लगे ,अगर हम  बिरसा मुंडा के धार्मिक विचारधारा  मुंडाओं के पुर्जागरण  लिए प्रेरम आहे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी बिरसा मुंडा के अनुयायियों ने उन्हें भगवान् का दर्जा प्रदान क्र दिया तथ उन्हें ईस्वर समझने  लगे बिरसा मुंडामें अनुयाययि अपने आपको बिरसाइत कहने लगे थे बिरसा मुंडा के धार्मिक प्रवचन में शोषण मुक्त सामाजिक व्यवस्ता की आकल्ट की हटी थी जिसके समाज के हर एक  वर्ग, के  मनुष्या  को आत्मा सम्मान से जीने का अधिकार होता थे बिरसा मुंडाअपने अनुयायों  को  हिंसा का  त्याग पशुबलि कर यगोपवित्र धारण करते हुए ह्रदय  की शुद्धता  पर ध्यान देने का उपदेस दिया बिरसा मुंडा ने न सिर्फ मुंडा समाज के लोगो को पुनः मुंडा धर्म में वापस लेने का प्रयास किया
मुण्डा शासन व्यवस्था —  बिरसा मुंडा, मुंडा समाज में प्राचीन समय  से चले आ रहे भूत प्रेत एवं आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास रखने की परंपरा के विरुद्ध थे । इस कारण मुंडा लोगों ने बिरसा मुंडा के धार्मिक विचारों को का खंडन किया और उन्हें समझने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि अगर देवी देवताओं और आत्माओं को  बलि नहीं दी गई तो कोई भारी विपत्ति  समाज पर आ जाएगी। यही कारण है कि जब बिरसा मुंडा के गांव में चेचक की बीमारी फैल गई तो लोगों ने बिरसा मुंडा को ही इसका जिम्मेदार मानते हुए उसे गांव से बाहर निकाल दिया। परंतु जब मुंडा को उसको उनके माता-पिता के चेचक होने के बारे में पता चला तो वह गांव पुनः वापस आ गए। ना सिर्फ उन्होंने अपने माता-पिता की बल्कि गांव के सभी बीमार लोग व्यक्तियों की तन मन से सेवा की जिसके कारण लोगों में उनका आदर बढ़ गया। वह इस बात को समझ गए कि बिरसा मुंडा सिर्फ आचरण की बात ही नहीं करते बल्कि स्वयं भी उसका उदाहरण प्रस्तुत करने में पीछे नहीं हटते.
मुचिआ  चलकद   —  में भी जब 1895 ईसवी में ऐसे ही माहामारी हुई तब बिरसा मुंडा वहां भी पहुंच गए तथा तन मन धन से लोगों की सेवा करने लगे। लोग ठीक हो करके इसे चमत्कार का रूप मानने लगे और बिरसा मुंडा को शक्ति से संपूर्ण व्यक्ति मानने  लगे। बिरसा मुंडा ने अपने धार्मिक सामाजिक आंदोलन को लोगों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी सोमा मुंडा को दी।
1 अक्टूबर 1894 को अंग्रेज को लगान  नहीं देने का निर्णय लिया गया क्योंकि 1894ईसवी में बारिश नहीं होने से छोटानागपुर में भयंकर अकाल पड़ा था। 1895 ईसवी में बिरसा मुंडा ने अपने धार्मिक उपदेशों के द्वारा लोगों को ब्रिटिश शासन के विरोध करना शुरू कर दिया था। बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक सशस्त्र विद्रोह प्रारंभ कर दिया। 1895 ईसवी में चले राजस्व वसूली से जनसाधारण को माफ करने के लिए एक आंदोलन चला। इस आंदोलन के नेतृत्व से बिरसा मुंडा ने अपने धार्मिक अनुयायियों एवं जनसाधारण को धार्मिक आधार पर एकत्र करने एवं संघर्ष करने वाले सेना के रूप में ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध  उतार दिया। इस सरकारी राजस्व को  ब्रिटिश सरकार ने माफ करने के लिए बिरसा मुंडा से चाईबासा तक का दौरा किया, जहां उन्होंने घोषणा की कि सरकार खत्म हो। हो गया है अब!  अब जंगल जीवन पर आदिवासी जनसमुदाय राज करेंगे। ब्रिटिश हुकूमत द्वारा बिरसा मुंडा के इस बढ़ते प्रभाव से आतंकित होकर बिरसा मुंडा और उसके साथियों के विरुद्ध धारा 353 और धारा 505 के तहत वारंट निर्गत कर दिया गया जी आर के मेयर्स  पुलिस  उपाधीक्षक ने 10 सिपाही लेकर तथा मरहू के एगिलकन मीशन के रेवरेंड लिस्ट तथा बाबू जगमोहन सिंह जो बस गांव के जमींदार थे को लेकर बिरसा मुंडा के घर पहुंचे। उन्होंने 24 अगस्त 1895 को पहली बार गिरफ्तार कर लिया गया। बिरसा मुंडा पर  जनसाधारण को ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध भड़काने का आरोप लगाते हुए भारतीय दंड संहिता की धारा 353 तथा तीन 505 के अंतर्गत कानूनी कार्रवाई की गई मुंडा तथा उसके साथ रहने वालों 15  अनुयायियों को 2 वर्ष की सजा दी गई।बिरसा मुंडा पर ₹50 का जुर्माना लगाया गया। जुर्मान न चुकाने पर  6 महीने की सजा बढ़ा दी जाये  दे का प्रावधान किया गया। सजा सुनाने के बाद बिरसा मुंडा को 19 नवंबर1895 को रांची जेल से हजारीबाग जेल भेजा गया।
ब्रिटिश हुकूमत ने बिरसा मुंडा और उसकी सेना के विरुद्ध या घोषणा कर दी कि जो कोई भी मानकी मुंडा या  बिरसा मुंडा के बारे में जानकारी देगा या उसे गिरफ्तार करवाने में मदद पहुंच आएगा। उसे नगद रुपए 500 का पुरस्कार दिया जाएगा। साथ ही साथ उसके गांव के लगान की भी पूरी जीवन  लगान को  माफ कर दी जाएगी। अधिकांश विद्वान इस बात पर सहमत हैं कि बिरसा मुंडा द्वारा ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध सशस्त्र आंदोलन की उलगुलान  है। कहा जाता है कि ब्रिटिश हुकूमत पर हमला करने के लिए बिरसा मुंडा ने  का जत्यो  का निर्माण किया था। बिरसा मुंडा की  सेना ने ना सिर्फ अंग्रेजों को बल्कि उन महाजनों और जमींदारों को भी अपना निशाना बनाया जो ब्रिटिश हुकूमत का साथ देते थे।
ऐसा अनुमान है कि इस लड़ाई में लगभग 200 मुंडाओं  की मौत हो गई थी। इस युद्ध में ऐसा कहा जाता है कि एक महिला जिसका नाम मानकी मुंडा था जो कि अब अद्भुत वीरता के साथ में इस आंदोलन  में लड़ी थी। मानकी  मुंडा जो की गया मुंडा की पत्नी थी  इस युद्ध में ब्रिटिश हुकूमत को काफी सफलता मिली थी। 300 मुंडाओं को बंदी बना लिया गया है तथा बिरसा मुंडा के प्रबल समर्थक मंझिया  मुंडा और डाका मुंडा ने 28 जनवरी 1900 ईस्वी  को ब्रिटिश हुकूमत के आगे सिर झुकाते हुए अपने 32 सहयोगियों के साथ आत्मसमर्पण कर दिया था। गया मुंडा को भी अंग्रेजों ने झटकी  मैं उसके घर पर घेराबंदी कर मार दिया था। ऐसा कहा जाता है कि 3 मार्च 1900 ईस्वी को  बनगाव के जगमोहन सिंह के वफादार  वीर सिंह  मेहली विश्वासघात करते हुए बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करवा दिया। विद्वानों का मत है कि 1900 ईस्वी  मे चक्रधरपुर के जंगल में बिरसा मुंडा को गिरफ्तार किया गया था। बिरसा मुंडा ने अपने समर्थकों को तीन भागों में विभक्त किया था। गुरु,पुराणक,नानक गुरु  में शामिल समर्थक सबसे अधिक विश्वास पात्र थे, जिनसे  से बिरसा मुंडा विचार─ विमर्श करते थे।  में पुराणक उसके समर्थक शामिल थे जो मुख्य रूप से बिरसा आंदोलन को संचालित करते थे। जनसाधारण तक आंदोलन को पहुंचाने का कार्य नानक पर था बिरसा मुंडा के विद्रोह के प्रतिक का झण्डा लाल रंग वह सफेद रंग का  था जिसमे सफ़ेद रंग मुंडा राज्य का प्रतीक वह लाल रंग ब्रिटिश हुकूमत के खत्म क प्रतिक था
बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर रांची लाया गया तथा उन पर मुकदमा चलाया गया। इस मुकदमे की सुनवाई के लिए एन.एस केट्स  की नियुक्ति की गई। कहां जाता है कि अंग्रेज द्वारा जलियाबाग हत्याकांड की तरह गोलियां डोंबारी की पहाड़ियां पर बरसाई गई आयुक्त ने सरगुजा, उदयपुर, जसपुर, रंगपुर तथा बुनाई के राजाओं को पत्र लिखकर बिरसा मुंडा को पकड़ने में मदद मांगी थी। बिरसा मुंडा के विरुद्ध आयुक्त फॉबर्स ने ऑफ कैप्टेन सेन  महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस आंदोलन में ब्रिटिश महारानी के पुतले को जलाया गया था, जिसे मंदोदरी कहा गया। इस आंदोलन में ब्रिटिश हुकूमत ने माना था कि खूंटी का थानेदार मृत्युंजय नाथ लाल ने अपनी नौकरी सही ढंग से नहीं निभाई है।
बिरसा मुंडा के विरुद्ध अंग्रेजी हुकूमत की सुनवाई पूरी होने से पहले ही कहा जाता है कि 9 जून 1900 ईस्वी  को बिरसा मुंडा की  मौत हो गई थी। अंग्रेजो  द्वारा बिरसा  मुंडा और उसके अनुयायियों तथा मुंडा समाज के ऊपर जो जुलम किये गए उसके  कलकत्ता  प्रकासित  होव आने इंग्लिशमें,पायोनियर तथ स्टेटमें में खबर छपी  सुरेंद्र नाथ बनर्जी इ काउंसिल मे ब्रिटिश हुकूमत की घृणा आचरण से सभी को अवगत करवाया।
बिरसा मुंडा ने एक ऐसा आंदोलन को जन्म दिया था जिस ने ना सिर्फ तत्कालीन बल्कि दूरगामी परिणाम भी देखने में आते हैं। 581 लोगों पर मुकदमा चला 13 लोगों की मृत्यु जेल में ही हो गई। 134 लोगों को सजा दे दी जिसमें 2  को फांसी तथा 40 को आजीवन कारावास और 6 को 7 वर्ष से 14 वर्ष की जेल की सजा सुनाई गई थी। डोका  मुंडा और मझियां मुंडा को देश से निकाल निकाल देने की सजा दी गई थी। सानेर मुंडा को फांसी की सजा दी गई थी। जो गया मुंडा का पुत्र था। टेकरी की बहादुरी का को राजा खान बहादुर खान की उपाधि दी गई थी। ठाकुर छात्रधारी सिंह, भवानी, बरस राय तथा बसंत सिंह की वार्षिक मालगुजारी में छूट दी गई थी।
25 मार्च 1900 ईस्वी  को बिरसा मुंडा के आंदोलन के बारे में स्टेटमेंट लेख छपा था। ब्रिटिश सरकार ने आंदोलनकारियों को पकड़ने में मदद करने के लिए तमाड़ में 17 तथा खूंटी में  33 मुंडा  को पुरस्कृत किया था। मुकदमे की सुनवाई के दौरान जैकाब  ने अभियुक्त  के वकील के रूप में भाग लिया था। जैकब सरदार आंदोलन  समर्थक थे । उच्च न्यायालय ने डोका  मुंडा के मृत्युदंड को  आजीवन कारावास में बदल दिया था।
यहां या ध्यान रखने की बात है कि बिरसा मुंडा सर्वप्रथम हजारीबाग जेल में रखे गए थे तथा दूसरी बार रांची जेल में रखे गए थे। बिरसा  मुंडा जिस जेल में रखा गया था उस जेल के अध्यक्ष का नाम कैप्टन एआ रएसएस बिरसा मुंडा के मौत की जांच क्रेवन ने  की थी। बिरसा मुंडा  आंदोलन के परिणाम स्वरुप छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 11 नवंबर, 1908 ईस्वी  को लागू हुआ। भारत सरकार ने 1889  ईसवी में बिरसा मुंडा पर डाक टिकट जारी किया तथा सांसद में उनका चित्र लगाया  गया। भारत सरकार द्वारा संसद के मैदान में 28 अगस्त 1998 को उसकी मूर्ति लगाई गई थी। रांची के एयरपोर्ट का नाम बिरसा मुंडा के नाम पर रखा गया। एयरपोर्ट रांची कोकर के निकट बिरसा मुंडा लो समाधी है जो नदी के डिस्टलरी पल के बगल में है बिरसा  मुंडा गिरफ्तारी के समय रांची के उपायुक्त  स्ट्रीट फिल्ड थे बरिसा मुण्डा आंदोलन के कारण ही बाद में ब्रिटिश सर्कार ने प्रारब्ध मई लिस्टर से तथ उसके उन्हके बाद जॉन रीद के द्वारा रांची जिले के जमीन  की मापी और बंदोबस्ती कराई 1908 ईस्वी में गुमला और 1905 ईस्वी में खुटी अनुमंडल बनाये गये