खेड़ा सत्याग्रह 1918
खेड़ा सत्याग्रह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण आंदोलन था, जो 1918 में खेड़ा जिले, गुजरात में हुआ था। यह सत्याग्रह महात्मा गांधी द्वारा संगठित और नेतृत्व किया गया था। इस समझौते का सबसे बड़ा कारण भारत के आंतरिक अशांति का होना था। क्यूंकि अलग – अलग नेताओं और अलग – अलग समितियों द्वारा अनेक प्रकार की विचारधारा को प्रस्तुत की जा रही थी ताकि भारत के लोगों में आपसी मदभेद ना हो जाए। इन्ही प्रयासों के तहत क्रेन्द्रिय विधान मंडल मे कांग्रेस के नेता भूलाभाई देसाई तथा क्रेंद्रीय विधानमंडल में ही मुस्लिम लीग के उपनेता लियाकत अली से मिले तथा दोनों ने आपसी विचार – विमर्श से केंद्र अंतरिम सरकर के गठन हेतु प्रस्ताव तैयार किया। इस प्रस्ताव को 1945 में प्रस्तुत किया गया था।
पृष्ठभूमि
1940 के दशक के मध्य तक, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था, और ब्रिटिश सरकार पर भारत को स्वतंत्रता देने का दबाव बढ़ रहा था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ही भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे, लेकिन दोनों के बीच वैचारिक मतभेद थे। कांग्रेस एक एकीकृत भारत की पक्षधर थी, जबकि मुस्लिम लीग ने मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के लिए एक अलग राष्ट्र (पाकिस्तान) की मांग की थी।
कारण
खेड़ा सत्याग्रह का मुख्य कारण 1918 में आई भयंकर बाढ़ और प्लेग महामारी थी, जिससे फसलें बर्बाद हो गईं और किसान भयंकर आर्थिक संकट में आ गए। इसके बावजूद, ब्रिटिश सरकार ने किसानों पर लगान (कर) माफ करने से इंकार कर दिया। इस अन्याय के विरोध में खेड़ा के किसानों ने महात्मा गांधी से सहायता की मांग की।
प्रमुख नेता
खेड़ा सत्याग्रह में महात्मा गांधी के साथ कई प्रमुख नेता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शामिल हुए, जिनमें मुख्य रूप से शामिल थे:
- सरदार वल्लभभाई पटेल0
- इंदुलाल याज्ञनिक
- नरहरी पारिख
- शंकरलाल पारीख
घटनाक्रम और समझौता
खेड़ा सत्याग्रह की शुरुआत 22 मार्च 1918 को हुई। सत्याग्रह के तहत किसानों ने कर का भुगतान करने से इंकार कर दिया और अपने खेतों को छोड़ने का निर्णय लिया। गांधीजी ने “सत्य और अहिंसा” के सिद्धांत पर आधारित इस आंदोलन का नेतृत्व किया।
अंततः, ब्रिटिश सरकार ने किसानों की मांगों को स्वीकार किया और यह निर्णय लिया कि जिन किसानों की फसलें 25% या उससे कम हुई थीं, उन्हें कर में छूट दी जाएगी। यह समझौता सत्याग्रह की बड़ी सफलता थी।
देसाई – लियाकत समझौता
देसाई-लियाकत समझौता 1945 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के बीच हुआ एक महत्वपूर्ण समझौता था। यह समझौता भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राजनीतिक गतिरोध को तोड़ने और भारत में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत अंतरिम सरकार के गठन के लिए किया गया था। इस समझौते का उद्देश्य दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच सहयोग और समझ को बढ़ाना था ताकि एक स्थिर और व्यापक सरकार का गठन किया जा सके।
प्रमुख व्यक्ति
- भूला भाई देसाई: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख नेता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे।
- लियाकत अली खान: ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के प्रमुख नेता और पाकिस्तान के बनने के बाद पहले प्रधानमंत्री बने।
समझौते की शर्तें
देसाई-लियाकत समझौते के तहत निम्नलिखित शर्तें निर्धारित की गई थीं:
- अंतरिम सरकार का गठन: एक अंतरिम सरकार का गठन किया जाएगा जिसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों के प्रतिनिधि शामिल होंगे। यह सरकार संविधान सभा की स्थापना के लिए कार्य करेगी।
- विभिन्न समुदायों का प्रतिनिधित्व: इस अंतरिम सरकार में विभिन्न समुदायों और दलों का उचित प्रतिनिधित्व होगा ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी समुदायों की आवाज सुनी जाए।
- संविधान सभा का गठन: एक संविधान सभा का गठन किया जाएगा जिसमें भारत के विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों के प्रतिनिधि शामिल होंगे। यह सभा भारत के भविष्य के संविधान का निर्माण करेगी।
प्रभाव और निष्कर्ष
हालांकि देसाई-लियाकत समझौता एक महत्वपूर्ण कदम था, लेकिन यह अंततः सफल नहीं हो पाया। इसके प्रमुख कारण थे:
- विश्वास की कमी: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच गहरे अविश्वास थे, जिससे यह समझौता सफल नहीं हो पाया।
- राजनीतिक परिस्थितियाँ: उस समय की राजनीतिक परिस्थितियाँ और बढ़ते तनाव ने इस समझौते को निष्फल कर दिया।
खेड़ा सत्याग्रह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ। इससे यह स्पष्ट हो गया कि अहिंसा और सत्याग्रह के माध्यम से भी अन्याय का विरोध किया जा सकता है और इसमें सफलता प्राप्त की जा सकती है। इस आंदोलन ने भारतीय जनता में आत्मविश्वास और एकता का संचार किया और महात्मा गांधी की नेतृत्व क्षमता को भी सिद्ध किया। सरदार वल्लभभाई पटेल की भूमिका ने उन्हें एक प्रभावशाली नेता के रूप में उभारा और बाद में वे स्वतंत्र भारत के पहले उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बने।
इस समझौते की विफलता के बावजूद, यह भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण घटना थी जिसने दिखाया कि विभिन्न विचारधाराओं के दलों के बीच संवाद और समझौते की संभावना हमेशा बनी रहती है। यह समझौता भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था और इसने आगे के राजनीतिक घटनाक्रमों पर गहरा प्रभाव डाला।